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मंगलवार, 11 मई 2010

एकादशी व्रत कथा और एकादशी का महत्व


एकादशी व्रत कथा और एकादशी का महत्व


* एकादशी व्रत कथा :-

वर्ष में 24 एकादशी होती है तथा अधिक मास मे 2 कुल 26 एकादशी होती है, उनके नाम यह है - 

1. उत्पन्ना एकादशी

2. मोक्षदा एकादशी

3. सफता एकादशी

4. पुत्रदा एकादशी 

5. जया एकादशी 

6. विजया एकादशी 

7. पापमोषनी एकादशी 

8. कामदा एकादशी

9. मोहिनी एकादशी 

10. योगिनी एकादशी 

11. पवित्रा एकादशी 

12. पुत्रदा एकादशी 

13. अजा एकादशी

14. इन्दिरा एकादशी 

15. रमा एकादशी 

16. पापांकुशा एकादशी 

17. देवशयनी एकादशी 

18. सफता एकादशी

19. निर्जला एकादशी 

20. आमतकी एकादशी 

21. परियर्सिनी एकादशी 

22. देवोत्यानी एकादशी

23. वरुयिनी एकादशी

24. कामदा एकादशी 

इन नामो के अतिरिक्त अधिक मास में पद्मिनी और परमा ये दो एकादशी होती है। यह नामानुसार फल देती है ।

* एकादशी व्रत कथा और एकादशी का महत्व :-

श्री सूत जी महाराज ब्राह्मणों से बोले हे ब्राह्मणों ! इस विधि युक्त उत्तम माहात्म्य को श्रीकृष्ण जी ने कहा था, विशेष कर जो इस व्रत की उत्पत्ति भक्ति से सुनते है वह इस लोक में अनेक प्रकार के सुख भोग कर अन्त में दुष्प्राप्य विष्णुलोक को पाते है। पूर्व काल में श्री भगवान् ने अर्जुन के प्रति एकादशी व्रत की उत्पत्ति विधि इत्यादि कही थी सो उन्ही के कथोपकथन रूप से मैं कहता हूँ । अर्जुन ने पूछा कि हे जनार्दन ! जो रात्रि में उपवास करते है तथा एक समय भोजन करते है उन्हें कैसा पुण्य मिलता है और उस उपवास करने की विधि क्या है है? शो अब आप कृपा करके कहिए। 

यह सुनकर श्रीकृष्ण भगवान् ने कहा कि सबसे प्रथम दशमी की रात्रि को दन्तधावन करे अर्थात दिन के आठवे प्रहर में जब सूर्य का तेज मन्द पड़ जाय तब दन्तधावन करना चाहिए और रात्रि को भोजन न करे, पुनः प्रात:काल निश्चिन्त चित्त होकर संकल्प करे, मध्यान्ह में भी संकल्प पूर्वक स्नान करे । नदी, तालब और वापी कूप आदि में स्नान करना चाहिए स्नान के पहले मृत्तिका स्नान अर्थात मिट्टी का चन्दन लगाना चाहिए ।

स्नान करने वृती पुरूष पतित, चोर, पाखंडो, मिथ्या दूसरो का अपवाद करने वाला, देवता, वेद और ब्राह्मणों को निन्दा करने वाला और जो अगम्या गमन करने वाला, दुराचारी परद्रव्य चुराने वाला इन सबो से भात न करे, यदि दैवत् इनको देखले तो इस पाप को दूर करने के लिए सूर्य को देखे । स्नान के अनन्तर सादर नैवेद्य आदि अर्पण करे । उस दिन निदा और मैथुन न करे। दिन तथा रात्रि नृत्य गायन आदि सदवार्ता से बितावे। भक्ति युक्त होकर ब्राह्मणों को दक्षिणा देवे और प्रणाम पूर्वक उनसे अपनी त्रुटि को क्षमा करावे । 

शुक्लपक्ष की और कृष्णपक्ष की एकादशी दोनो धार्मिको के लिए समान है, इन दोनो एकादशी में भेद बुद्धि उचित नहीं है। इस प्रकार जो एकादशी डत करते है उन मनुष्यो को शंखो शंखोद्धार तीर्थ में स्नान करके भगवान् के दर्शन से जो पुण्य होता है वह एकादशी व्रत के पुण्य के सोलहवे हिस्से के भी बराबर नहीं है, व्यतीपात योग में संक्रांति समय में, चन्द्र-सूर्य ग्रहण में, कुरूक्षेत्र में स्नान से जो फल प्राप्त होता है, वह सब एकादशी के व्रत करने से मनुष्य को प्राप्त होता है ।

अश्वमेघ यज्ञ करने से जो फल होता है उससे सौ गुना अधिक पुण्य एकादशी व्रत से भी होता है  जिस मनुष्य एक सहस्त्र तपस्वी साठ हजार वर्ष भोजन करे, उसे जो पुण्य प्राप्त होता है सो एकादशी व्रत से भी होता है वेद में वेदांग पूर्ण ब्राह्मण को एक हजार गौदान करने से जो पुण्य होता है उससे दस गुना अधिक पुण्य एकादशी व्रत से होता है। दस उत्तम ब्राह्मणों को भोजन कराने से जो पुण्य होता है। उससे दस गुना अधिक पुण्य एकादशी व्रत से होता है। 

दस उत्तम ब्राह्मणों को भोजन कराने से जो पुण्य होता है। उससे दस गुना अधिक ब्रहाचारियो के भोजन से होता है इससे हजार गुना अधिक कन्या और भूमिदान से पुण्य है इससे दस गुना अधिक विद्यादान शे पुण्य है, विद्या दान से दस गुना अधिक पुण्य भूखे की अनन देने से होता है। अन्न दान के बराबर और दुसरा पुण्य नहीं है।

इसके द्वारा स्वर्गीय पितर तृप्त होते है इसके पुण्य का प्रभाव देवताओं को भी जानना दुर्लभ है। नत्तव्रत करने का आधा फल एक भुक्त व्रत से होता है। एकादशी को इनमे से कोई करना चाहिए। तीर्थ तभी तक गर्जना करते है, दान नियम यम अपने फल को तभी तक घोषणा करता है, यज्ञो का फल तभी तक है। झब तक की दस एकादशी प्राप्त नहीं हुई है। इस कारण अवश्य एकादशी व्रत करना चाहिए। शंख से जल नही पीना चाहिए । मछली और सूआ नहीं खाना चाहिए और अन्न नही खाना चाहिए, एक एकादशी के समान हजार यज्ञ भी नही है। 

अर्जुन ने पूछा हे देव! आप इस तीर्थ को सब तीर्थों से श्रेष्ठ तथा पवित्र कहते है। इसमे क्या कारण है ? भगवान् ने कहा कि- पहले सतयुग में मुर नामक एक भयंकर दैत्य था जिसके भय से सभी देवता भयभीत थे। उसने इन्द्र आदि सभी देवताओं को जीतकर उन्हें उनके स्थान से भ्रष्ट कर दिया था। तब इन्द्र ने महादेव जी से कहा कि हम लोग इस समय मुर दैत्य के अत्याचार से पीड़ित होकर मृतणुलोक में अपना काल बिता रहे है । और देवताओं की दशा तो कहीं नहीं जाती सो कृपा करके इस  दुःख से छुटने का उपाय बतलाइये। 

श्री महादेव जी ने कहा कि देवो के राजा इन्द्र आप भगवान् विष्णु के पास जाइये । महादेव जी के वचन को सुनकर देवराज इन्द्र देवताओं को साथ लेकर क्षीर सागर में जहां जगत्पति जनार्दन सोये थे, वहाँ गये। भगवान को सोये देखकर इन्द्र ने हाथ जोड़कर उनकी स्तुति की- हे देवताओं के देव ! हे देवपूजित ! आपको नमस्कार है। दैत्यो के नाशक मधुसूदन ! हे पुंडरीकाक्ष ! आप हम लोगों की रक्षा करे। है जगन्नाथ ! दैत्यो से डरकर सब देवता मेरे साथ आपको शरण में आए है। 

आप हम लोगों की रक्षा करे । आप इस जगत् के स्थिति कर्ता, उतपत्तिकर्ता और संहारकर्ता है। आप देवताओं के सहायक है। तथा उन्हे सुख देने वाले है। आप पृथ्वी है, आकाश है और संसार के प्राणियों के उपकारक है। आप ही संसार है तथा सम्पूर्ण त्रैलोक्य की रक्षा करने वाले है। आप देवताओं के सहायक है तथा उन्हें सुख देने वाले है। आप ही सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, हव्य, मन्त्र, तन्त्र, यजमानयज्ञ और समस्त कर्म फल भोक्ता ईश्वर भी है। इस सम्पूर्ण जगत में ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ आप न होवे ।

हे शरणदः । आये हुओ के रक्षक हे देव- देव भगवान् ! आप हम लोगो की रक्षा करे । इस समय दानवो ने देवताओं को जीत लिया है और उन्हें स्वर्ग से निकाल दिया है, अब देवता लोग अपने स्थान को छोड़कर भूमि में मार-मारे। फिरते है, आप ही उन सबके रक्षक है। इस प्रकार से इन्द्र के वचनो को सुनकर भगवान बोले कि- वह कौन दैत्य है ? जिसने देवो को जीता है। वह कहां रहता है, उसका नाम क्या है और उसका बल क्या है

हे इन्द्र ! यह सब विस्तार पूर्वक कहिए तथा भय छोड़ दो यह सुनकर इन्द्र कहने लगे कि हे देव ! पहले एक बड़ा भारी नाड़ीजंघ नामक दैत्य था। जिसकी उत्पत्ति ब्रह्मवंश में थी और अपने बल से गर्वित होकर देवो को सर्वदा पीड़ित करता था। उसी का पुत्र मरू नामक दैत्य है जिसकी राजधानी का नाम चन्द्रावती है। वह नगरी अति सुन्दर है। वह दैत्य उपने प्रखर वीर्य से सम्पूर्ण विश्व को जीत कर और देवताओं को देवलोक से निकाल कर इन्द्र, अग्नि, यम, वरूण और चन्द्रमा आदि लोकपाल स्वयं बन बैठा है, स्वयं सूर्य बनकर जगत को तपा रहा है, स्वयं पर्जन्य (मेघ) बन गया है। इस कारण आप देवताओं के लिए दर्द के लिए दर्दमनीय दानव को मारकर देवताओ को विजयी बनाये। 

श्री भगवान् इन्द्र से अत्याचार सुनकर अत्यन्त कुद्ध हुए तथा इन्द्र को सम्बोधन करके बोले कि- देवेन्द्र ! अब आप लोगों को शत्रुभय से शीघ्र ही निर्मूल करूंगा और हे बलशाली देवो । आप लोग सब मिल चन्द्रावती पुरी को जाओ। यह कह श्री भगवान् भी पीछे-पीछे चन्द्रावती को गए। वहां जाकर देखा कि दैत्याधिप मुरू अनेक दैत्यों से परिवेष्टित होकर संग्राम भुमि में गरज रहा है। 

युद्ध प्रारंभ होने पर असंख्यात सहस्र दानव दिव्य अस्त्र शास्त्रों से सुसिज्जत होकर लड़ने लगे। अंत में देवता लोग दानवो से लड़ न सके तब दैत्यो ने देखा कि ह्मषिकेश भगवान् रणभूमि में उपस्थित है। उन्हें देखकर अनेक दैत्य अस्त्र-शस्त्र से उन पर टूट पड़े। जब भगवान ने देखा कि देवता भाग गये है तब शंखचक्रगदाधारी भगवान् अस्त्र-शास्त्रों से राक्षसों को विद्ध करने लगे। उन सर्प समान अस्त्रो से विद्ध अनेक दानव इस लोक से चिरदिन के लिए प्रस्थित हुए परन्तु दैत्याधिप निश्चल भाव से युद्ध करता रहा । 

भगवान् जिन-जिन अस्त्रों का प्रयोग उस पर करे वह सब उसके तेज से कुण्ठित होकर पुष्प के समान उसके अंगो मे मालूम पड़ते थे। अनेक शस्त्रो के प्रयोग करने पर भी जब भगवान् उसको न जीत सके तो तब,कुद्ध होकर परिघ तुल्य बाहुओ से मल्ल युद्ध करने लगे। देवताओं के हजार वर्ष भगवान् ने उससे युद्ध किया परन्तु वह नहीं हारा। तब भगवान् शांत होकर विश्राम करने की इच्छा से बदरिकाश्नम चले गए। वहां अवतालीस कोस की लम्बाई में विस्तृत और एक द्वार युक्त हेमवती नामक गुफा में शयन करने के अर्थ भगवान् ने प्रवेश किया। 

हे धनञ्जय ! मै उस गुफा में सोया था। डह दानव भी मेरे पीछे-पीछे उस गुफा में चला गया और मुझे सोता देखकर मारने के लिए उद्यत हुआ। वह समझता था कि आज मै दानवो के चिर शत्रु इनको मारकर उन्हें निष्कण्टक बनाउँ । उसी समय मेरे शरीर से अ अत्यन्त सुन्दरी दिव्य अस्त्र लिए एक कन्या उत्पन्न होकर दानवराज के सन्मुख युद्ध के लिए उपस्थित हुई। दानवेन्द्र उससे युद्ध करने लगा और युद्ध में उसकी निपुणता देखकर सोचने लगा कि इस रुद्रास्वरूप  स्त्री को किसने बनाया जिसके बाण बज्र के समान है। पुन: उन दोनो मे घमासान युद्ध आरम्भ हुआ। 

इस मुहूर्त में ही उस कन्या ने दानव राज के अस्त्र शस्त्रों को काटकर उसे रथहीन कर दिया। वह दानव विरथ और निःशस्त्र होकर आक्रमण करने के लिए दौड़ा परन्तु भगवती ने उसे मुष्टिक मारकर जमीन पर गिरा दिया। पुनः उटकर कन्या को मारने की इच्छा से दौड़ा, उसे आते देखकर भगवती ने उसका सिर धड़ से अलग करके उसे यमलोक को भेज दिया और उसके साथी भयभीत होकर पाताल को चले गये। तब भगवान् उठे और सामने हाथ जोड़ खड़ी हुई उस कन्या को देखकर परम प्रसन्न हुए और बोले कि सम्पूर्ण देव गन्धर्व नाग लोकेश सभी को जीतने वाले इस दुष्ट दानव को रण में किसने मारा है ?

जिसके भय से मैने इस कन्दरा का आश्रय लिया था। सो किसने कृपाकर मेरी रक्षा की है। कन्या ने उत्तर दिया कि- हे प्रभो! आपको सोया देखकर वह आपको मारना चाहता था कि आपके अंश से उत्पन्न हुई मैने ही इस दानव का संहार करके देवताओं को निर्भय किया है। मै सर्व शुभदमनकारिणी आपकी ही महाशक्ति हूं । हे प्रभो ! आप बतलाइए कि इसके मारने से आपको क्यो आश्चर्य हो रहा है ? भगवान बोले कि- हे निष्पाप! एस दानव को मारने में तुझ पर मै अत्यन्त प्रसन्न हूँ 

इस समय सभी देवता अत्यन्त हर्षित हो गये हैं और तीनों लोकों में इस समय सभी देवता अत्यन्त हर्षित हो गये हैं और तीनो लोकों में इस समय आन्नद छा रहा है। अतएव निस्संकोच होकर तुम्हारी जो इछा हो सो वर मांगो । स्मरण रक्खों कि देवताओं को दुर्लभ वर भी तुम मांगोगी तो मैं तुम्हे देगा। कन्या बोली कि भगवान ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न है।और यदि वर देना चाहते है तो मुझे वह वर दीजिए कि यदि कोई उपवास करे तो मैं उसके पापों से उसे तारने में समर्थ होउँ और उपवास से जो पुण्य होता है उससे आधा रात्रि भोजन में होने और उसका आधा पुण्य एक संध्या में भोजन करने वालो को हो । 

जो मेरे दिन को जितेन्द्रिय भक्ति युक्त होकर उपवास करे सो विष्णु घाम को प्राप्त होवे और अनेक कोटि वर्ष तक वह वहां अनन्त सुख भोग करे। भगवन् ! यदि आप प्रसन्न है । तो यही वर दीजिए। यह सुनकर भगवान् बोले कि हे कल्याणि ! जो तुम कहती हो वह सत्य होवे। जो हमारे और आपके भक्त है उनकी कीर्ति  जगत में प्रसिद्ध होगी तथा वे मेरे समीप वास करेंगे । हे मेरी उत्तम शक्ति तुम एकादशी तिथि को उत्पन्न हुई हो इस कारण तुम्हारा नाम भी एकादशी होगा। 

एकादशी उपवास करने वाले के सम्पूर्ण पापो को दूरकर मै उन्हें उत्तम गति दूंगा। विशेष कर अष्टमी चतुर्दशी एकादशी ये तिथियाँ  मुझे अत्यन्त प्रिय है। हे पार्थ! सब तीर्थों से, सब दानो से, सब व्रतो से अधिक पुण्य एकादशी तिथि में है।विष्णु भगवान इतना वर देके वही अनतर्ध्यान हो गये और एकादशी तिथि भी वर पाकर परम संतुष्ट तथा हर्षित हुई। 

हे अर्जुन ! जो मनुष्य एकादशी का व्रत करते है में उनके शत्रुओ को नाश करके अवश्य उत्तम पद देता हूँ। इस प्रकार एकादशी की उत्पत्ति हुई है। यह नित्य एकादशी व्रत सब पापो को नाश करने वाला है। सब पापो को दूर करने और सब प्रकार के मनोरथ सिद्ध करने के लिए यह एक तिथि प्रसिद्ध है। शुक्ल पक्ष की एकादशी अथवा कृष्णपक्ष की एकादशी इन दोनों में भेद करना उचित नही। दोनो समान है। जो एकादशी का माहात्म्य जो सर्वदा श्रवण या पठन करते हैं उन्हें अवमध यज्ञ का फल प्राप्त होता है । 

जो विष्णु परायण मनुष्य दिन-रात विष्णु के द्वारा विष्णु की कथा सुनते है वह अपने कोटि पुरुष के साथ विष्णु लोक में जाकर पूजित होते है। जो एकादशी माहात्म्य का चतुर्थांश भी श्रवण करता है उसके ब्रह्म हत्यादिक पाप छूट जाते है। विष्णु धर्म नहीं है और एकादशी व्रत के समान दूसरा व्रत नहीं है।