* राजा बलि की कथा :-
एक बार महाराज युधिष्ठिर ने
भगवान् श्री कृष्ण से विनयपूर्वक पूछा कि, हे भगवन्! आप मुझे कृपा कर
कोई ऐसा व्रत या अनुष्ठान बतायें,
जिसके करने से मै अपने नष्ट
राज्य को पुनः प्राप्त कर सकूँ,
क्योंकि राज्यच्युत हो जाने
के कारण में अत्यन्त दुःखी हूँ
श्री कृष्ण जी ने कहा - हे
राजन् ! मेरा परमभक्त दैत्यराज बलि ने एक बार सौ अश्वमेघ यज्ञ करने का संकल्प किया
। निनयानबे यज्ञ तो उसने निर्विध्न रूप से पूर्ण कर लिये, परन्तु सौवाँ यज्ञ के पूर्ण होते ही उनहे अपने राज्य से निर्वासित
होने का भय सताने लगा
देवताओं को साथ लेकर इन्द्र
क्षीरसागर निवासी भगवान् विष्णु के पास पहुँचकर वेद - मन्त्रों से स्तुति की और
अपने कष्ट का सम्पूर्ण वृत्तान्त भगवान् विष्णु से कह सुनाया। सुनकर भगवान् ने
उनसे कहा - तुम निर्भय होकर अपने लोक मे जाओ। मैं तुम्हारे कष्ट को शीघ्र दूर
करूंगा
इन्द्र के चले जाने पर
भगवान् ने वामन का अवतार धारण कर बटुवेश में राजा बलि के यज्ञ में प्रस्थान किया ।
राजा बलि को वचनबद्ध कर भगवान् ने तीन पग भूमि उनसे दान में माँग ली । बलि द्वारा
दान का संकल्प करते ही भगवान् ने अपने विराट् रूप से एक पग में सारी पृथ्वी को नाप
लिया । दुसरे पग से अंतरिक्ष और तीसरा चरण उसके सिर पर रख दिया । राजा बलि की
दानशीलता से प्रसनन हो भगवान् ने उससे वर माँगने को कहा । राजा के कहा - कार्तिक
कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी से अमावस्या तक अर्थात दीपावली तक इस धरती पर मेरा राज्य
रहे । इन तीन दिनों तक सभी लोग दीप-दान । कर लक्ष्मी जी की पूजा करें और कर्ता के
गृह में लक्ष्मी का वास हो
राजा द्वारा याचित वर को
देकर भगवान् ने बलि को पातालपुरी का राज्य देकर पाताल लोक को भेज दिया । उसी समय
से देश के सम्पूर्ण नागरिक इस पूनित दीपावली पर्व को मनाते चले आ रहे है । अतः सभी
प्राणियों के लिये इस पर्व को सदभावना पूर्वक मनाना आवश्क ही नहीं बल्कि अनिवार्य
भी है।
* भैया दूज की कथा :-
दीपावली के तीसरे दिन
अर्थात् कार्तिक शुक्ल द्वितीया को भाई दूज के नाम से जाना जाता है। इस दिन भाई
अपनी बहन के हाथो रोली-अक्षत लगवाकर मिठाई खाता और उसे दक्षिणा के रूप में कुछ द्रव्य भी देता है। इस दिन भाई के लिए
बहिन के घर का भोजन करने का विधान है। परन्तु कहीं-कहीं जिनके भाई बहिन के घर नहीं
पहुंच पाते उनकी बहिनें भाई के घर पर जा कर
उन्हें टीका लगाकर मिठाइयाँ खिलाती है।
पौराणिक कथाओं के आधार पर ऐसा
कहा जाता है कि, एक बार यमुना (नदी) ने अपने
भाईयमराज को मांगलिक द्रव्यो से टीका लगाकर उन्हें भोजन कराया था। जिस दिन यमुना
ने भाई से आग्रह कर भोजन आदि से सन्तुष्ट किया था, उस दिन कार्तिक शुक्ल द्वितीया तिथि थी। तभी से इस पर्व को माना जाने
लगा। बहिन की सेवा से सन्तुष्ट होकर यमुना से वरदान माँगने के लिए कहा। बहिन यमुना
ने उत्तर दिया- आज की पुनीत तिथि के दिन जो भाई-बहिन एक साथ मेरे जल में स्नान
करें, उन्हे अन्त काल में यम-यातना न भोगना पड़े और वह
जीवनकाल में सभी प्रकार से सुख-समृद्धि को प्राप्त हो । अपनी बहिन को अभीसत वरदान
देकर यमराज अपने लोक को चले गए। अतः हम सभी लोगों का नैतिक कर्तव्य है कि, इस पावन-पर्व को विधिवत्म मनाए।