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शुक्रवार, 18 दिसंबर 2020

दिसंबर 18, 2020

शयनी एकादशी

शयनी एकादशी


शयनी एकादशी
(आषाढ़ शुक्ल एकादशी)

युधिष्ठिर ने पूछा : भगवन् । आषाढ़ के शुक्लपक्ष में कौन सी एकादशी होती है उसका नाम और विधि क्या हैयह बतलाने की कृपा करें ।

भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् । आषाढ़ शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम 'शयनीहै। मैं उसका वर्णन करता हूँ । वह महान पुण्यमयीस्वर्ग और मोक्ष प्रदान करनेवालीसब पापों को हरनेवाली तथा उत्तम व्रत है। आषाढ़ शुक्लपक्ष में 'शयनी एकादशी के दिन जिन्होंने कमल पुष्प से कमललोचन भगवान विष्णु का पूजन तथा एकादशी का उत्तम व्रत किया हैउन्होंने तीनों लोकों और तीनों सनातन देवताओं का पूजन कर लिया । 

हरिशयनी एकादशी के दिन मेरा एक स्वरुप राजा बलि के यहाँ रहता है और दूसरा क्षीरसागर में शेषनाग की शैय्या पर तब तक शयन करता हैजब तक आगामी कार्तिक की एकादशी नहीं आ जातीअत: आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी से लेकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक मनुष्य को भलीभाँति धर्म का आचरण करना चाहिए । जो मनुष्य इस व्रत का अनुष्ठान करता हैवह परम गति को प्राप्त होता है

इस कारण यत्नपूर्वक इस एकादशी का व्रत करना चाहिए । एकादशी की रात में जागरण करके शंखचक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान विष्णु की भक्तिपूर्वक पूजा करनी चाहिए । ऐसा करनेवाले पुरुष के पुण्य की गणना करने में चतुर्मुख ब्रह्माजी भी असमर्थ हैं

राजन् । जो इस प्रकार भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले सर्वपापहारी एकादशी के उत्तम व्रत का पालन करता हैवह जाति का चाण्डाल होने पर भी संसार में सदा मेरा प्रिय रहनेवाला है । जो मनुष्य दीपदानपलाश के पत्ते पर भोजन और व्रत करते हुए चौमासा व्यतीत करते हैंवे मेरे प्रिय हैं । चौमासे में भगवान विष्णु सोये रहते हैंइसलिए मनुष्य को भूमि पर शयन करना चाहिए । 

सावन में सागभादों में दहीक्वार में दूध और कार्तिक में दाल का त्याग कर देना चाहिए । जो चौमसे में ब्रह्मचर्य का पालन करता हैवह परम गति को प्राप्त होता है । राजन् । एकादशी के व्रत से ही मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता हैअत: सदा इसका व्रत करना चाहिए । कभी भूलना नहीं चाहिए । 'शयनी और 'बोधिनीके बीच में जो कृष्णपक्ष की एकादशीयाँ होती हैंगृहस्थ के लिए वे ही व्रत रखने योग्य हैं - अन्य मासों की कृष्णपक्षीय एकादशी गृहस्थ के रखने योग्य नहीं होती । शुक्लपक्ष की सभी एकादशी करनी चाहिए ।
दिसंबर 18, 2020

योगिनी एकादशी

योगिनी एकादशी


योगिनी एकादशी
(आषाढ़ कृष्ण एकादशी)

युधिष्ठिर ने पूछा : वासुदेव । आषाढ़ के कृष्णपक्ष में जो एकादशी होती हैउसका क्या नाम हैकृपया उसका वर्णन कीजिये ।

भगवान श्रीकृष्ण बोले : नृपश्रेष्ठ । आषाढ़  के कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम योगिनीहै। यह बड़े बड़े पातकों का नाश करनेवाली है। संसारसागर में डूबे हुए प्राणियों के लिए यह सनातन नौका के समान है।

अलकापुरी के राजाधिराज कुबेर सदा भगवान शिव की भक्ति में तत्पर रहनेवाले हैं । उनका 'हेममालीनामक एक यक्ष सेवक थाजो पूजा के लिए फूल लाया करता था । हेममाली की पत्नी का नाम 'विशालाक्षीथा । वह यक्ष कामपाश में आबद्ध होकर सदा अपनी पत्नी में आसक्त रहता था । एक दिन हेममाली मानसरोवर से फूल लाकर अपने घर में ही ठहर गया और पत्नी के प्रेमपाश में खोया रह गयाअतः कुबेर के भवन में न जा सका इधर कुबेर मन्दिर में बैठकर शिव का पूजन कर रहे थे । उन्होंने दोपहर तक फूल आने की प्रतीक्षा की । जब पूजा का समय व्यतीत हो गया तो यक्षराज ने कुपित होकर सेवकों से कहा : 'यक्षों ! दुरात्मा हेममाली क्यों नहीं आ रहा है?'

यक्षों ने कहा : राजन् । वह तो पत्नी की कामना में आसक्त हो घर में ही रमण कर रहा है । यह सुनकर कुबेर क्रोध से भर गये और तुरन्त ही हेममाली को बुलवाया । वह आकर कुबेर के सामने खड़ा हो गया ।  उसे देखकर कुबेर बोले ओ पापी । अरे दुष्ट । ओ दुराचारी । तूने भगवान की अवहेलना की हैअत: कोढ़ से युक्त और अपनी उस प्रियतमा से वियुक्त होकर इस स्थान से भ्रष्ट होकर अन्यत्र चला जा ।

कुबेर के ऐसा कहने पर वह उस स्थान से नीचे गिर गया । कोढ़ से सारा शरीर पीड़ित था परन्तु शिव पूजा के प्रभाव से उसकी स्मरणशक्ति लुप्त नहीं हुई तदनन्तर वह पर्वतों में श्रेष्ठ मेरुगिरि के शिखर पर गया । वहाँ पर मुनिवर मार्कण्डेयजी का उसे दर्शन हुआ । पापकर्मा यक्ष ने मुनि के चरणों में प्रणाम किया । मुनिवर मार्कण्डेय ने उसे भय से कॉपते देख कहा : 'तुझे कोढ़ के रोग ने कैसे दबा लिया ?'

यक्ष बोला : मुने । मैं कुबेर का अनुचर हेममाली हूँ। मैं प्रतिदिन मानसरोवर से फूल लाकर शिव पूजा के समय कुबेर को दिया करता था । एक दिन पत्नी सहवास के सुख में फँस जाने के कारण मुझे समय का ज्ञान ही नहीं रहा. अतः राजाधिराज कुबेर ने कुपित होकर मुझे शाप दे दियाजिससे मैं कोढ़ से आक्रान्त होकर अपनी प्रियतमा से बिछुड़ गया । मुनिश्रेष्ठ ! संतों का चित्त स्वभावत: परोपकार में लगा रहता हैयह जानकर मुझ अपराधी को कर्तव्य का उपदेश दीजिये ।

मार्कण्डेयजी ने कहा : तुमने यहाँ सच्ची बात कही हैइसलिए मैं तुम्हें कल्याणप्रद व्रत का उपदेश करता हूँ। तुम आषाढ़ मास के कृष्णपक्ष की 'योगिनी एकादशी का व्रत करो । इस व्रत के पुण्य से तुम्हारा कोढ़ निश्चय ही दूर हो जायेगा ।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : राजन् ! मार्कण्डेयजी के उपदेश से उसने 'योगिनी एकादशीका व्रत कियाजिससे उसके शरीर को कोढ़ दूर हो गया । उस उत्तम व्रत का अनुष्ठान करने पर वह पूर्ण सुखी हो गया ।

नृपश्रेष्ठ ! यह 'योगिनीका व्रत ऐसा पुण्यशाली है कि अठ्ठासी हजार ब्राह्मणों को भोजन कराने से जो फल मिलता है. वही फल 'योगिनी एकादशीका व्रत करनेवाले मनुष्य को मिलता है । 'योगिनीमहान पापों को शान्त करनेवाली और महान पुण्य फल देनेवाली है । इस माहात्म्य को पढ़ने और सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है।
दिसंबर 18, 2020

विजया एकादशी

विजया एकादशी


विजया एकादशी

(फाल्गुन कृष्ण एकादशी)

युधिष्ठिर ने पूछा : हे वासुदेव। फाल्गुन  के कृष्णपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है और उसका व्रत करने की विधि क्या हैकृपा करके बताइये ।

भगवान श्रीकृष्ण बोले : युधिष्ठिर । एक बार नारदजी ने ब्रह्माजी से फाल्गुन के कृष्णपक्ष की 'विजया एकादशी के व्रत से होनेवाले पुण्य के बारे में पूछा था तथा ब्रह्माजी ने इस व्रत के बारे में उन्हें जो कथा और विधि बतायी थीउसे सुनो !

ब्रह्माजी ने कहा : नारद ! यह व्रत बहुत ही प्राचीनपवित्र और पाप नाशक है । यह एकादशी राजाओं को विजय प्रदान करती हैइसमें तनिक भी संदेह नहीं है । त्रेतायुग में मर्यादा पुरुषोतम श्रीरामचन्द्रजी जब लंका पर चढ़ाई करने के लिए समुद्र के किनारे पहुंचेतब उन्हें समुद्र को पार करने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था । उन्होंने लक्ष्मणजी से पूछा 'सुमित्रानन्दन ! किस उपाय से इस समुद्र को पार किया जा सकता है यह अत्यन्त अगाध और भयंकर जल जन्तुओं से भरा हुआ है । मुझे ऐसा कोई उपाय नहीं दिखायी देताजिससे इसको सुगमता से पार किया जा सके ।'

लक्ष्मणजी बोले : हे प्रभु । आप ही आदिदेव और पुराण पुरुष पुरुषोत्तम हैं । आपसे क्या छिपा हैयहाँ से आधे योजन की दूरी पर कुमारी द्वीप में बकदाल्भ्य नामक मुनि रहते हैं । आप उन प्राचीन मुनीश्वर के पास जाकर उन्हींसे इसका उपाय पूछिये । श्रीरामचन्द्रजी महामुनि बकदाल्भ्य के आश्रम पहुंचे और उन्होंने मुनि को प्रणाम किया । महर्षि ने प्रसन्न होकर श्रीरामजी के आगमन का कारण पूछा।

श्रीरामचन्द्रजी बोले : ब्रह्मन् । मैं लंका पर चढ़ाई करने के उद्देश्य से अपनी सेनासहित यहाँ आया हूँ । मुझे । अब जिस प्रकार समुद्र पार किया जा सकेकृपा करके वह उपाय बताइये ।

बकदाल्भय मुनि ने कहा : हे श्रीरामजी ! फाल्गुन के कृष्णपक्ष में जो 'विजया नाम की एकादशी होती हैउसका व्रत करने से आपकी विजय होगी । निश्चय ही आप अपनी वानर सेना के साथ समुद्र को पार कर लेंगे

राजन् । अब इस व्रत की फलदायक विधि सुनिये : दशमी के दिन सोनेचाँदीताँबे अथवा मिट्टी का एक कलश स्थापित कर उस कलश को जल से भरकर उसमें पल्लव डाल दें। 

उसके ऊपर भगवान नारायण के सुवर्णमय विग्रह की स्थापना करें । फिर एकादशी के दिन प्रातः काल स्नान करें । कलश को पुनः स्थापित करें मालाचन्दनसुपारी तथा नारियल आदि के द्वारा विशेष रुप से उसका पूजन करें । कलश के ऊपर सप्तधान्य और जौ रखें गन्धधूपदीप और भाँति भाँति के नैवेघ से पूजन करें । कलश के सामने बैठकर उत्तम कथा वार्ता आदि के द्वारा सारा दिन व्यतीत करें और रात में भी वहाँ जागरण करें । 

अखण्ड व्रत की सिद्धि के लिए घी का दीपक जलायें । फिर द्वादशी के दिन सूर्योदय होने पर उस कलश को किसी जलाशय के समीप (नदीझरने या पोखर के तट पर) स्थापित करें और उसकी विधिवत् पूजा करके देव प्रतिमासहित उस कलश को वेदवेत्ता ब्राह्मण के लिए दान कर दें । कलश के साथ ही और भी बड़े बड़े दान देने चाहिए श्रीराम ! आप अपने सेनापतियों के साथ इसी विधि से प्रयत्नपूर्वक 'विजया एकादशीका व्रत कीजिये । इससे आपकी विजय होगी।

ब्रह्माजी कहते हैं : नारद ! यह सुनकर श्रीरामचन्द्रजी ने मुनि के कथनानुसार उस समय 'विजया एकादशी का व्रत किया । उस व्रत के करने से श्रीरामचन्द्रजी विजयी हुए उन्होंने संग्राम में रावण को मारालंका पर विजय पायी और सीता को प्राप्त किया । बेटा ! जो मनुष्य इस विधि से व्रत करते हैंउन्हें इस लोक में विजय प्राप्त होती है और उनका परलोक भी अक्षय बना रहता है।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : युधिष्ठिर । इस कारण 'विजयाका व्रत करना चाहिए इस प्रसंग को पढ़ने और सुनने से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है ।
दिसंबर 18, 2020

जया एकादशी

जया एकादशी


जया एकादशी

(माघ शुक्ल एकादशी)

युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा : भगवन् ! कृपा करके यह बताइये कि माघ मास के शुक्लपक्ष में कौन सी एकादशी होती हैउसकी विधि क्या है तथा उसमें किस देवता का पूजन किया जाता है ?

भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजेन्द्र ! माघ मास के शुक्लपक्ष में जो एकादशी होती हैउसका नाम 'जयाहै । वह सब पापों को हरनेवाली उत्तम तिथि है । पवित्र होने के साथ ही पापों का नाश करने वाली तथा मनुष्यों को भाग और मोक्ष प्रदान करने वाली है । इतना ही नहीं वह ब्रह्महत्या जैसे पाप तथा पिशाचत्व का भी विनाश करने वाली है । इसका व्रत करने पर मनुष्यों को कभी प्रेतयोनि में नहीं जाना पड़ता । इसलिए राजन् ! प्रयत्नपूर्वक जया नाम की एकादशी का व्रत करना चाहिए।

एक समय की बात है । स्वर्गलोक में देवराज इन्द्र राज्य करते थे । देवगण पारिजात वृक्षों से युक्त नंदनवन में अप्सराओं के साथ विहार कर रहे थे । पचास करोड़ गन्धर्वो के नायक देवराज इन्द्र ने स्वेच्छानुसार वन में विहार करते हुए बड़े हर्ष के साथ नृत्य का आयोजन किया । गन्धर्व उसमें गान कर रहे थेजिनमें पुष्पदन्तचित्रसेन तथा उसका पुत्र - ये तीन प्रधान थे । चित्रसेन की स्त्री का नाम मालिनी था । 

मालिनी से एक कन्या उत्पन्न हुई थीजो पुष्पवन्ती के नाम से विख्यात थी । पुष्पदन्त गन्धर्व का एक पुत्र थाजिसको लोग माल्यवान कहते थे । माल्यवान पुष्पवन्ती के रुप पर अत्यन्त मोहित था । ये दोनों भी इन्द्र के संतोषार्थ नृत्य करने के लिए आये थे । इन दोनों का गान हो रहा था । इनके साथ अप्सराएँ भी थीं परस्पर अनुराग के कारण ये दोनों मोह के वशीभूत हो गये । चित्त में भ्रान्ति आ गयी इसलिए वे शुद्ध गान न गा सके कभी ताल भंग हो जाता था तो कभी गीत बंद हो जाता था । 

इन्द्र ने इस प्रमाद पर विचार किया और इसे अपना अपमान समझकर वे कुपित हो गये । अतः इन दोनों को शाप देते हुए बोले : 'ओ मूर्खो । तुम दोनों को धिक्कार है। तुम लोग पतित और मेरी आज्ञाभंग करनेवाले होअतः पति पत्नी के रुप में रहते हुए पिशाच हो जाओ ।इन्द्र के इस प्रकार शाप देने पर इन दोनों के मन में बड़ा दुःख हुआ । वे हिमालय पर्वत पर चले गये और पिशाचयोनि को पाकर भयंकर दुःख भोगने लगे । शारीरिक पातक से उत्पन्न ताप से पीड़ित होकर दोनों ही पर्वत की कन्दराओं में विचरते रहते थे । 

एक दिन पिशाच ने अपनी पत्नी पिशाची से कहा : हमने कौन सा पाप किया हैजिससे यह पिशाचयोनि प्राप्त हुई है नरक का कष्ट अत्यन्त भयंकर है तथा पिशाचयोनि भी बहुत दुःख देनेवाली है । अतः पूर्ण प्रयत्न करके पाप से बचना चाहिए । इस प्रकार चिन्तामग्न होकर वे दोनों दुःख के कारण सूखते जा रहे थे । दैवयोग से उन्हें माघ मास के शुक्लपक्ष की एकादशी की तिथि प्राप्त हो गयी । जयानाम से विख्यात वह तिथि सब तिथियों में उत्तम है । उस दिन उन दोनों ने सब प्रकार के आहार त्याग दियेजल पान तक नहीं किया । किसी जीव की हिंसा नहीं कीयहाँ तक कि खाने के लिए फल तक नहीं काटा । 

निरन्तर दुःख से युक्त होकर वे एक पीपल के समीप बैठे रहे । सूर्यास्त हो गया । उनके प्राण हर लेने वाली भयंकर रात्रि उपस्थित हुई । उन्हें नींद नहीं आयी । वे रति या और कोई सुख भी नहीं पा सके । सूर्यादय हुआद्वादशी का दिन आया । इस प्रकार उस पिशाच दंपति के द्वारा जयाके उत्तम व्रत का पालन हो गया । उन्होंने रात में जागरण भी किया था उस व्रत के प्रभाव से तथा भगवान विष्णु की शक्ति से उन दोनों का पिशाचत्य दूर हो गया । पुष्पवन्ती और माल्यवान अपने पूर्वरुप में आ गये । 

उनके हृदय में वही पुराना स्नेह उमड़ रहा था । उनके शरीर पर पहले जैसे ही अलंकार शोभा पा रहे थे। वे दोनों मनोहर रुप धारण करके विमान पर बैठे और स्वर्गलोक में चले गये वहाँ देवराज इन्द्र के सामने जाकर दोनों ने बड़ी प्रसन्नता के साथ उन्हें प्रणाम किया । उन्हें इस रुप में उपस्थित देखकर इन्द्र को बड़ा विस्मय हुआ । उन्होंने पूछा : 'बताओकिस पुण्य के प्रभाव से तुम दोनों का पिशाचत्व दूर हुआ हैतुम मेरे शाप को प्राप्त हो चुके थेफिर किस देवता ने तुम्हें उससे छुटकारा दिलाया

माल्यवान बोला : स्वामिन् ! भगवान वासुदेव की कृपा तथा 'जयानामक एकादशी के व्रत से हमारा पिशाचत्य दूर हुआ है ।

इन्द्र ने कहा :  तो अब तुम दोनों मेरे कहने से सुधापान करो । जो लोग एकादशी के व्रत में तत्पर और भगवान श्रीकृष्ण के शरणागत होते हैंवे हमारे भी पूजनीय होते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : राजन् । इस कारण एकादशी का व्रत करना चाहिए नृपश्रेष्ठ । 'जयाब्रह्महत्या का पाप भी दूर करनेवाली है । जिसने 'जयाका व्रत किया हैउसने सब प्रकार के दान दे दिये और सम्पूर्ण यज्ञों का अनुष्ठान कर लिया । इस माहात्म्य के पढ़ने और सुनने से अग्निष्टोम यज्ञ का फल मिलता है।
दिसंबर 18, 2020

पौष पुत्रदा एकादशी

पौष पुत्रदा एकादशी


पौष पुत्रदा एकादशी
(पौष शुक्ल एकादशी)

युधिष्ठिर बोले : श्रीकृष्ण ! कृपा करके पौष मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का माहात्म्य बतलाइये । उसका नाम क्या हैउसे करने की विधि क्या है उसमें किस देवता का पूजन किया जाता है ?

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा : राजन्! पौष मास के शुक्लपक्ष की जो एकादशी हैउसका नाम 'पुत्रदाहै । पुत्रदा एकादशीको नाम-मंत्रों का उच्चारण करके फलों के द्वारा श्रीहरि का पूजन करे । नारियल के फलसुपारीबिजौरा नींबूजमीरा नींबूअनारसुन्दर आँवलालौंगबेर तथा विशेषत: आम के फलों से देवदेवेश्वर श्रीहरि की पूजा करनी चाहिए  इसी प्रकार धूप दीप से भी भगवान की अर्चना करे । 

पुत्रदा एकादशीको विशेष रुप से दीप दान करने का विधान है । रात को वैष्णव पुरुषों के साथ जागरण करना चाहिए जागरण करनेवाले को जिस फल की प्राप्ति होति हैवह हजारों वर्ष तक तपस्या करने से भी नहीं मिलता यह सब पापों को हरनेवाली उत्तम तिथि है । चराचर जगतसहित समस्त त्रिलोकी में इससे बढ़कर दूसरी कोई तिथि नहीं है समस्त कामनाओं तथा सिद्धियों के दाता भगवान नारायण इस तिथि के अधिदेवता हैं ।

पूर्वकाल की बात हैभद्रावतीपुरी में राजा सुकेतुमान राज्य करते थे । उनकी रानी का नाम चम्पा था । राजा को बहुत समय तक कोई वंशधर पुत्र नहीं प्राप्त हुआ । इसलिए दोनों पति पत्नी सदा चिन्ता और शोक में डूबे रहते थे । राजा के पितर उनके दिये हुए जल को शोकोच्छवास से गरम करके पीते थे । 'राजा के बाद और कोई ऐसा नहीं दिखायी देताजो हम लोगों का तर्पण करेगा ...यह सोच सोचकर पितर दुःखी रहते थे ।

एक दिन राजा घोड़े पर सवार हो गहन वन में चले गये । पुरोहित आदि किसीको भी इस बात का पता न था । मृग और पक्षियों से सेवित उस सघन कानन में राजा भ्रमण करने लगे । मार्ग में कहीं सियार की बोली सुनायी पड़ती थी तो कहीं उल्लुओं की । जहाँ तहाँ भालू और मृग दृष्टिगोचर हो रहे थे । इस प्रकार घूम घूमकर राजा वन की शोभा देख रहे थेइतने में दोपहर हो गयी । राजा को भूख और प्यास सताने लगी वे जल की खोज में इधर उधर भटकने लगे किसी पुण्य के प्रभाव से उन्हें एक उत्तम सरोवर दिखायी दियाजिसके समीप मुनियों के बहुत से आश्रम थे शोभाशाली नरेश ने उन आश्रमों की ओर देखा । 

उस समय शुभ की सूचना देनेवाले शकुन होने लगे राजा का दाहिना नेत्र और दाहिना हाथ फड़कने लगाजो उत्तम फल की सूचना दे रहा था । सरोवर के तट पर बहुत से मुनि वेदपाठ कर रहे थे । उन्हें देखकर राजा को बड़ा हर्ष हुआ । वे घोड़े से उतरकर मुनियों के सामने खड़े हो गये और पृथक्पृ थक् उन सबकी वन्दना करने लगे । वे मुनि उत्तम व्रत का पालन करनेवाले थे जब राजा ने हाथ जोड़कर बारंबार दण्डवत् कियातब मुनि बोले : 'राजन् ! हम लोग तुम पर प्रसन्न हैं।'

राजा बोले : आप लोग कौन हैं आपके नाम क्या हैं तथा आप लोग किसलिए यहाँ एकत्रित हुए हैंकृपया यह सब बताइये ।

मुनि बोले : राजन् ! हम लोग विश्वेदेव हैं यहाँ स्नान के लिए आये हैं माघ मास निकट आया है आज से पाँचवें दिन माघ का स्नान आरम्भ हो जायेगा आज ही 'पुत्रदानाम की एकादशी है,जो व्रत करनेवाले मनुष्यों को पुत्र देती है

राजा ने कहा : विश्वेदेवगण ! यदि आप लोग प्रसन्न हैं तो मुझे पुत्र दीजिये।

मुनि बोले : राजन्! आज 'पुत्रदानाम की एकादशी है। इसका व्रत बहुत विख्यात है। तुम आज इस उत्तम व्रत का पालन करो महाराज! भगवान केशव के प्रसाद से तुम्हें पुत्र अवश्य प्राप्त होगा ।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : युधिष्ठिर ! इस प्रकार उन मुनियों के कहने से राजा ने उक्त उत्तम व्रत का पालन किया । महर्षियों के उपदेश के अनुसार विधिपूर्वक पुत्रदा एकादशीका अनुष्ठान किया । फिर द्वादशी को पारण करके मुनियों के चरणों में बारंबार मस्तक झुकाकर राजा अपने घर आये । तदनन्तर रानी ने गर्भधारण किया । प्रसवकाल आने पर पुण्यकर्मा राजा को तेजस्वी पुत्र प्राप्त हुआजिसने अपने गुणों से पिता को संतुष्ट कर दिया । वह प्रजा का पालक हुआ

इसलिए राजन्! 'पुत्रदाका उत्तम व्रत अवश्य करना चाहिए मैंने लोगों के हित के लिए तुम्हारे सामने इसका वर्णन किया है । जो मनुष्य एकाग्रचित्त होकर पुत्रदा एकादशी का व्रत करते हैंवे इस लोक में पुत्र पाकर मृत्यु के पश्चात् स्वर्गगामी होते हैं। इस माहात्म्य को पढ़ने और सुनने से अग्निष्टोम यज्ञ का फल मिलता है।
दिसंबर 18, 2020

सफला एकादशी

सफला एकादशी


सफला एकादशी

(पौष कृष्ण एकादशी)

युधिष्ठिर ने पूछा : स्वामिन् ! पौष मास के कृष्णपक्ष में जो एकादशी होती हैउसका क्या नाम हैउसकी क्या विधि है तथा उसमें किस देवता की पूजा की जाती है यह बताइये ।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : राजेन्द्र ! बड़ी बड़ी दक्षिणावाले यज्ञों से भी मुझे उतना संतोष नहीं होताजितना एकादशी व्रत के अनुष्ठान से होता है पौष मास के कृष्णपक्ष में 'सफलानाम की एकादशी होती है । उस दिन विधिपूर्वक भगवान नारायण की पूजा करनी चाहिए । जैसे नागों में शेषनागपक्षियों में गरुड़ तथा देवताओं में श्रीविष्णु श्रेष्ठ हैंउसी प्रकार सम्पूर्ण व्रतों में एकादशी तिथि श्रेष्ठ है।

राजन ! 'सफला एकादशीको नाम मंत्रों का उच्चारण करके नारियल के फलसुपारीबिजौरा तथा जमीरा नींबूअनारसुन्दर आँवलालौंगबेर तथा विशेषत: आम के फलों और धूप दीप से श्रीहरि का पूजन करे । 'सफला
एकादशीको विशेष रुप से दीप दान करने का विधान है । रात को वैष्णव पुरुषों के साथ जागरण करना चाहिए जागरण करनेवाले को जिस फल की प्राप्ति होती हैवह हजारों वर्ष तपस्या करने से भी नहीं मिलता ।

नृपश्रेष्ठ ! अब 'सफला एकादशीकी शुभकारिणी कथा सुनो चम्पावती नाम से विख्यात एक पुरी हैजो कभी राजा माहिष्मत की राजधानी थी । राजर्षि माहिष्मत के पाँच पुत्र थे । उनमें जो ज्येष्ठ थावह सदा पापकर्म में ही लगा रहता था । परस्त्रीगामी और वेश्यासक्त था । उसने पिता के धन को पापकर्म में ही खर्च किया । वह सदा दुराचारपरायण तथा वैष्णवों और देवताओं की निन्दा किया करता था । अपने पुत्र को ऐसा पापाचारी देखकर राजा माहिष्मत ने राजकुमारों में उसका नाम लुम्भक रख दिया। फिर पिता और भाईयों ने मिलकर उसे राज्य से बाहर निकाल दिया । 

लुम्भक गहन वन में चला गया । वहीं रहकर उसने प्राय: समूचे नगर का धन लूट लिया । एक दिन जब वह रात में चोरी करने के लिए नगर में आया तो सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया । किन्तु जब उसने अपने को राजा माहिष्मत का पुत्र बतलाया तो सिपाहियों ने उसे छोड़ दिया । फिर वह वन में लौट आया और मांस तथा वृक्षों के फल खाकर जीवन निर्वाह करने लगा उस दुष्ट का विश्राम स्थान पीपल वृक्ष बहुत वर्षों पुराना था उस वन में वह वृक्ष एक महान देवता माना जाता था पापबुद्धि लुम्भक वहीं निवास करता था ।

एक दिन किसी संचित पुण्य के प्रभाव से उसके द्वारा एकादशी के व्रत का पालन हो गया । पौष मास में कृष्णपक्ष की दशमी के दिन पापिष्ठ लुम्भक ने वृक्षों के फल खाये और वस्त्रहीन होने के कारण रातभर जाड़े का कष्ट भोगा उस समय न तो उसे नींद आयी और न आराम ही मिला वह निष्प्राण सा हो रहा था । सूर्योदय होने पर भी उसको होश नहीं आया । 'सफला एकादशीके दिन भी लुम्भक बेहोश पड़ा रहा । दोपहर होने पर उसे चेतना प्राप्त हुई । फिर इधर उधर दृष्टि डालकर वह आसन से उठा और लँगड़े की भाँति लड़खड़ाता हुआ वन के भीतर गया । वह भूख से दुर्बल और पीड़ित हो रहा था । 

राजन् ! लुम्भक बहुत से फल लेकर जब तक विश्राम स्थल पर लौटातब तक सूर्यदेव अस्त हो गये । तब उसने उस पीपल वृक्ष की जड़ में बहुत से फल निवेदन करते हुए कहा: 'इन फलों से लक्ष्मीपति भगवान विष्णु संतुष्ट हों ।यों कहकर लुम्भक ने रातभर नींद नहीं ली । इस प्रकार अनायास ही उसने इस व्रत का पालन कर लिया । उस समय सहसा आकाशवाणी हुई: 'राजकुमार ! तुम 'सफला एकादशीके प्रसाद से राज्य और पुत्र प्राप्त करोगे ।' 'बहुत अच्छाकहकर उसने वह वरदान स्वीकार किया । 

इसके बाद उसका रुप दिव्य हो गया । तबसे उसकी उत्तम बुद्धि भगवान विष्णु के भजन में लग गयी । दिव्य आभूषणों से सुशोभित होकर उसने निष्कण्टक राज्य प्राप्त किया और पंद्रह वर्षों तक वह उसका संचालन करता रहा । उसको मनोज्ञ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जब वह बड़ा हुआतब लुम्भक ने तुरंत ही राज्य की ममता छोड़कर उसे पुत्र को सौंप दिया और वह स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के समीप चला गयाजहाँ जाकर मनुष्य कभी शोक में नहीं पड़ता।

राजन् ! इस प्रकार जो 'सफला एकादशीका उत्तम व्रत करता हैवह इस लोक में सुख भोगकर मरने के पश्चात् मोक्ष को प्राप्त होता है संसार में वे मनुष्य धन्य हैंजो 'सफला एकादशीके व्रत में लगे रहते हैंउन्हीं का जन्म सफल है । महाराज! इसकी महिमा को पढ़नेसुनने तथा उसके अनुसार आचरण करने से मनुष्य राजसूय यज्ञ का फल पाता है ।
दिसंबर 18, 2020

मोक्षदा एकादशी

मोक्षदा एकादशी


मोक्षदा एकादशी

(मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी)

युधिष्ठिर बोले : देवदेवेश्वर ! मार्गशीर्ष मास के शुक्लपक्ष में कौन सी एकादशी होती है उसकी क्या विधि है तथा उसमें किस देवता का पूजन किया जाता हैस्वामिन् ! यह सब यथार्थ रुप से बताइये ।

श्रीकृष्ण ने कहा : नृपश्रेष्ठ ! मार्गशीर्ष मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का वर्णन करूँगाजिसके श्रवणमात्र से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है । उसका नाम 'मोक्षदा एकादशीहै जो सब पापों का अपहरण करनेवाली है । राजन् ! उस दिन यत्नपूर्वक तुलसी की मंजरी तथा धूप दीपादि से भगवान दामोदर का पूजन करना चाहिए । पूर्वाक्त विधि से ही दशमी और एकादशी के नियम का पालन करना उचित है । मोक्षदा एकादशी बड़े बड़े पातकों का नाश करने वाली है । 

उस दिन रात्रि में मेरी प्रसन्न्ता के लिए नृत्यगीत और स्तुति के द्वारा जागरण करना चाहिए जिसके पितर पापवश नीच योनि में पड़े होंवे इस एकादशी का व्रत करके इसका पुण्यदान अपने पितरों को करें तो पितर मोक्ष को प्राप्त होते हैं इसमें तनिक भी संदेह नहीं है । पूर्वकाल की बात हैवैष्णवों से विभूषित परम रमणीय चम्पक नगर में वैखानस नामक राजा रहते थे । वे अपनी प्रजा का पुत्र की भाँति पालन करते थे । इस प्रकार राज्य करते हुए राजा ने एक दिन रात को स्वप्न में अपने पितरों को नीच योनि में पड़ा हुआ देखा । उन सबको इस अवस्था में देखकर राजा के मन में बड़ा विस्मय हुआ और प्रातः काल ब्राह्मणों से उन्होंने उस स्वप्न का सारा हाल कह सुनाया 

राजा बोले : ब्रह्माणो ! मैने अपने पितरों को नरक में गिरा हुआ देखा है । वे बारंबार रोते हुए मुझसे यों कह रहे थे कि : 'तुम हमारे तनुज होइसलिए इस नरक समुद्र से हम लोगों का उद्धार करो। द्विजवरो ! इस रुप में मुझे पितरों के दर्शन हुए हैं इससे मुझे चैन नहीं मिलता क्या करूँ कहाँ जाऊँमेरा हृदय रुंधा जा रहा है । द्विजोत्तमो ! वह व्रतवह तप और वह योगजिससे मेरे पूर्वज तत्काल नरक से छुटकारा पा जायेंबताने की कृपा करें । मुझ बलवान तथा साहसी पुत्र के जीते जी मेरे माता पिता घोर नरक में पड़े हुए हैं ! अत: ऐसे पुत्र से क्या लाभ है ?

ब्राह्मण बोले : राजन् ! यहाँ से निकट ही पर्वत मुनि का महान आश्रम है । वे भूत और भविष्य के भी ज्ञाता हैं । नृपश्रेष्ठ ! आप उन्हींके पास चले जाइये । ब्राह्मणों की बात सुनकर महाराज वैखानस शीघ्र ही पर्वत मुनि के आश्रम पर गये और वहाँ उन मुनिश्रेष्ठ को देखकर उन्होंने दण्डवत् प्रणाम करके मुनि के चरणों का स्पर्श किया । मुनि ने भी राजा से राज्य के सातों अंगों की कुशलता पूछी।

राजा बोले : स्वामिन् ! आपकी कृपा से मेरे राज्य के सातों अंग सकुशल हैं किन्तु मैंने स्वप्न में देखा है कि मेरे पितर नरक में पड़े हैं । अतः बताइये कि किस पुण्य के प्रभाव से उनका वहाँ से छुटकारा होगा राजा की यह बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ पर्वत एक मुहूर्त तक ध्यानस्थ रहे । इसके बाद  वे राजा से बोले : महाराज! मार्गशीर्ष के शुक्लपक्ष में जो 'मोक्षदानाम की एकादशी होती हैतुम सब लोग उसका व्रत करो और उसका पुण्य पितरों को दे डालो । उस पुण्य के प्रभाव से उनका नरक से उद्धार हो जायेगा ।'

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : युधिष्ठिर ! मुनि की यह बात सुनकर राजा पुनः अपने घर लौट आये । जब उत्तम मार्गशीर्ष मास आयातब राजा वैखानस ने मुनि के कथनानुसार मोक्षदा एकादशीका व्रत करके उसका पुण्य समस्त पितरोंसहित पिता को दे दिया पुण्य देते ही क्षणभर में आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी । वैखानस के पिता पितरोंसहित नरक से छुटकारा पा गये और आकाश में आकर राजा के प्रति यह पवित्र वचन बोले : 'बेटा ! तुम्हारा कल्याण हो ।यह कहकर वे स्वर्ग में चले गये ।

राजन् ! जो इस प्रकार कल्याणमयी मोक्षदा एकादशीका व्रत करता हैउसके पाप नष्ट हो जाते हैं और मरने के बाद वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है । यह मोक्ष देनेवाली 'मोक्षदा एकादशीमनुष्यों के लिए चिन्तामणि के समान समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाली है । इस माहात्मय के पढ़ने और सुनने से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है ।