वैदिक व पाश्चात्य ज्योतिष में समानता व असमानत
'ज्योतिषां ग्रह-नक्षत्राणां गतिमधिकृत्य
कृतं शास्त्रं ज्योतिषशास्त्रम्'
अर्थात् ज्योतिष शास्त्र :- ग्रह-नक्षत्रों की गति को आधार मानकर बनाए गए शास्त्र को ज्योतिष शास्त्र कहते है।
ज्योतिष शास्त्र :- वह शास्त्र है जिसमें गणितीय विधि से ग्रह-नक्षत्रों की गति व स्थिति की जानकारी प्राप्त कर,मानव जीवन पर उनके समष्टिगत व व्यष्टिगत रूप से पड़ने वाले प्रभाव का बोध होता हैं। भारतीय ज्योतिष को ही 'वैदिक ज्योतिष' कहते है।
वेद के छह अंगों में ज्योतिष का 'चक्षु' स्थान है और चक्षु के बिना मनुष्य कोई भी काम करने में समर्थ नहीं हो सकता है। इसलिए ज्योतिष को वेद के दूसरे अंगों से ज्यादा प्रमुखता दी गई है। वैदिक ज्योतिष ईश्वर को पाने और बुरे प्रभाव को दूर करने के लिए लौकिक और अलौकिक दोनों तरह के उपाय बतलाता है, जबकि पाश्चात्य ज्योतिष में ईश्वर को पाने और बुरे प्रभाव को दूर करने के लिए लौकिक और अलौकिक दोनों तरह के उपाय बतलाना संभव नहीं है।
1.वैदिक ज्योतिष में अदृष्ट फल का विचार अदृष्ट-निरयन मेषादि ग्रहों या निरयन पद्धति एवं ग्रह-वेध,ग्रहण आदि तथा दृष्ट-फल का विचार दृष्ट-सायन मेषादि ग्रहों के आधार पर किया गया है।
2.वैदिक ज्योतिष पुनर्जन्मवाद व कर्मवाद पर आधारित है।
वैदिक ज्योतिष में निरयन व पाश्चात्य ज्योतिष में सायन पद्धति को आधार मानकर फलादेश किया जाता है।
निरयन-पद्धति के आधार पर यदि कोई ग्रह किसी राशि के 7 अंश पर है तो सायन-पद्धति के आधार पर वही ग्रह उससे दूसरी राशि के 1 अंश पर होगा।
सृष्टि के प्रारंभ में मेषादि-बिंदु को ही निरयन बिंदु या 'निरयन-मेषादि' कहा जाता है।मेषादि-बिंदु का मेष सम्पात वर्तमान में 50 विकला पीछे की ओर खिसकता जा रहा है।
वर्तमान में निरयन-मेषादि सम्पात व सायन-मेषादि सम्पात का अंतर 23 अंश 56 मिनट हो गया है।
निरयन-मेषादि सम्पात व सायन-मेषादि सम्पात का अंतर को ही 'अयनांश' कहते है।
अयनांश से 'निरयन-ग्रह' तथा अयनांश के सहित ग्रह 'सायन-ग्रह' कहलाते हैं।
'धर्म' के द्वारा अर्जित 'अर्थ' से जो 'काम' किया जाता है, उससे 'मोक्ष' की प्राप्ति होती है।
1.पाश्चात्य ज्योतिष में अदृष्ट-फल को मान्यता नहीं दी गई है और दृष्ट-फल का विचार सर्वेक्षण के आधार पर किया जाता है।अतः पाश्चात्य ज्योतिष में सायन पद्धति अपनाई जाती है।
2.पाश्चात्य ज्योतिष में पुनर्जन्मवाद व कर्मवाद के नहीं होने के कारण सभी तरह के नतीजे का विचार सर्वेक्षण के आधार पर सायन-पद्धति से किया जाता है।
पुनर्जन्मवाद व कर्मवाद के सिद्धान्त के अनुसार कर्म तीन तरह का संचित,प्रारब्ध व क्रियमाण होता है। इनमें से जन्म-जन्मान्तरों से अर्जित अभुक्त कर्म का संचय संचित कर्म कहलाता है। जो कर्म आगे किया जाने वाला है, वह क्रियमाण कर्म कहलाता है। तीन तरह के इन कर्मफलों को 'अदृष्ट-फल' कहा गया है।
आचार्य वराह मिहिर ने लिखा है कि-
यदुपचितमन्यजन्मनि तस्यकर्मण:पक्तिम्।
व्यंञ्जयति शास्त्रमेतत् तमसि द्रव्याणि दीप इव।।
अर्थात् जन्म-जन्मांतरों से अर्पित शुभाशुभ कर्म के परिपाक को ज्योतिष शास्त्र वैसे ही अभिव्यक्त करता है जैसे दीपक अंधकार में रखे हुए पर्दाथों को।
सायन व निरयन में अंतर:- सृष्टि के आरंभ में पात ग्रह अर्थात् केतु को छोड़कर दूसरे समस्त राशि चक्र के मेषादि-बिंदु(जिसे निरयन मेषादि-बिंदु भी कहते है) पर स्थित थे। उस दिन सूर्य व चन्द्र के एक राशि, एक अंश,एक कला आदि समान होने एवं अमान्त के बाद चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा होने की वजह से भारतीय नववर्ष(संवत्सर) का प्रारंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही होता है। इस क्रम में चन्द्रमा ने लगभग सवा दो दिन में एक राशि व लगभग एक मास व एक वर्ष में एक राशि चक्र का,जबकि सूर्य ने लगभग एक मास में एक राशि व एक वर्ष में एक राशि चक्र का भोग किया। अतः सूर्य द्वारा एक राशि चक्र के भोगकाल को एक 'सौर वर्ष' कहा जाता है।
वैदिक ज्योतिष के स्कंध :- वैदिक ज्योतिष के तीन स्कंध-सिद्धान्त स्कंध,संहिता स्कंध और होरा स्कंध प्रसिद्ध है।
1.सिद्धान्त स्कंध :- में सृष्टि के आदि से प्रलय के अंत तक कि कालगणना तथा ग्रह-नक्षत्रों की गणना की जाती है।
2.संहिता स्कंध :- में ग्रह,नक्षत्रों, उल्काओं, धूमकेतुओं आदि के संचार से अतिवृष्टि, अनावृष्टि,चक्रवात,भूकंप,युद्ध-विभीषिकाओं आदि के प्रभावों का वर्णन,भूगर्भ विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, मुहूर्त विज्ञान, प्रश्न विज्ञान, शकुन विज्ञान, वास्तु-विद्या आदि की विवेचना की गई है।
3.होरा स्कंध :- में जन्मसमय को आधार मानकर जन्मकुंडली बनाई जाती है।
आधार सूर्य हो या चन्द्रमा कोई फर्क नहीं
सूर्यजातक में कहा गया है कि
अहं राजा शशि राज्ञी नेता भूमिसुत: खग:।
सौम्य: कुमारो मंत्री च गुरुस्तद्वल्लभा भृगु:।।
प्रेष्यास्तथैव सम्प्रोक्त: सर्वदा तनुजो मम।
अर्थात् सूर्य राजा,चन्द्रमा रानी,बुध युवराज, मंगल नायक,बृहस्पति देव-मंत्री,शुक्र दैत्य-मंत्री और शनि दास है। कालपुरुष की दृष्टि से सूर्य को आत्मा और चन्द्रमा को मन कहा गया है। वैदिक ज्योतिष में ग्रहों की संख्या सात बताई गई है और राहु व केतु को छाया ग्रह माना गया है,जबकि एस्ट्रोनॉमी व आधुनिक विज्ञान को आधार मानते हुए पाश्चात्य ज्योतिष में प्लूटो,युरेनस व नेप्च्यून को ग्रह माना गया है। ज्योतिष शास्त्र में सात ग्रहों को 12 राशियों का स्वामी माना गया है। सूर्य व चन्द्रमा ही एक राशि के, जबकि शेष सभी दो-दो राशियों के स्वामी माने जाते है। सूर्य को सिंह व चन्द्रमा को कर्क राशि का स्वामी कहा गया है। बारह राशियों के नाम मनुष्य, पशु आदि के नाम पर रखे गए है, जिसमें सिंह सबसे बली है। अतः राशियों में सिंह को सबसे बलशाली माना जाता है और इसका स्वामी सूर्य है। चन्द्रमा एक दिव्य ग्रह है, जिसका सम्बन्ध जल से है। अतः चन्द्रमा को सिंह की पूर्ववर्ती राशि अर्थात् कर्क का स्वामी माना गया है। मेष से चतुर्थ राशि कर्क व पंचम सिंह है। चतुर्थ व पंचम राशियों को 12 राशियों में से निकाल दिए जाने पर शेष 10 राशियां रह जाती है।
शास्त्रों के अनुसार प्रलय के अंत में सूर्य का उदय होता है और उसी के प्रकाश से ताराओं व पृथ्वी में उज्ज्वलता आती है। अतः जब सूर्य का उदय हुआ तो पहला होरा सूर्य का माना। सूर्य के सबसे निकट होने के कारण शुक्र को दूसरा तथा शुक्र के सबसे निकट होने के कारण बुध को तीसरा होरा,चन्द्रमा को चौथा,शनि को पांचवा,बृहस्पति को छठा, मंगल को सातवां,सूर्य को आठवां, शुक्र को नौवां,बुध को दसवां,चन्द्रमा को ग्यारहवांं,शनि को बारहवां,बृहस्पति को तेरहवां,मंगल को चौदहवां, सूर्य को पन्द्रहवां,शुक्र को सोलहवां,बुध को सत्रहवां,चन्द्रमा को अठारहवां,शनि को उन्नीसवां,बृहस्पति को बीसवां,मंगल को इक्कीसवां,सूर्य को बाइसवां,शुक्र को तेइसवां व बुध को चौबीसवां या अंतिम होरा माना गया है। इसके बाद जब सूर्योदय हुआ तो प्रथम होरा चन्द्रमा का हुआ। इसी कारण ऋषियों ने सूर्यवार (रविवार) के बाद चंदवार (सोमवार) का नाम रखा। इस क्रम से चौबीस होरा तक कि गणना करने पर चौबीसवां होरा सोमवार को समाप्त हो गया।