आमलकी एकादशी
(फाल्गुन शुक्ल एकादशी)
होलिका दगन से चार दिन पूर्व फाल्गुन के शुक्ल
पक्ष की इस एकादशी का नाम आमलकी एकादशी है । इन दिनों आँवले के वृक्ष में भगवान्
का निवास रहता है। इसलिए आँवले के वृक्ष के नीचे बैठकर भगवान् की पूजा करने और
आंवले खाने और दान करने का विशेष महत्व है। इस दिन स्नानादि से निवृत होकर आंवले
के वृक्ष का धूप, दीप, चंदन, रोली, पुष्प, अक्षत आदि से पूजन कर उसके
नीचे ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए ।
* आमलकी एकादशी कथा :-
त्रेता युग में एक दिन महाराज मांधाता ने
ब्रह्मर्षि वशिष्टजी से अनुरोध किया हे मुनिवर ! यदि आप मुझ से
प्रसन्न हैं तो कृपापूर्वक मुझे कोई ऐसा व्रत बतलाएँ जिसको करने से मेरा सब प्रकार
से कल्याण हो । महर्षि वशिष्ठजी ने उत्तर दिया - हे राजन् ! यों तो सभी व्रत उत्तम
हैं, परन्तु इनमें सर्वोत्तम है आमलकी एकादशी व्रत ।
फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की इस आमलकी एकादशी का व्रत करने से सब पाप नष्ट हो
जाते हैं । इस व्रत को करने से एक हजार गायों के दान के बराबर पुण्य प्राप्त होता
है । इस बारे में कथा में आपको सुनाता हूँ ध्यानपूर्वक सुनिए -वैदिक नामक एक नगर में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों
वर्गों के परिवार आन्नदपर्वक रहा करते थे। वहाँ पर सदेव वेद ध्वनि गंजा करती थी।
पापी, दुराचारी तथा नास्तिक कोई नहीं था । उस नगर में, चैत्ररथ नाम का चन्द्रवंशी राजा राज करता था ।
सभी नगरवासी भगवान् विष्णु के परम भक्त थे और सभी
नियमपूर्वक एकादशियों का व्रत किया करते थे। प्रत्येक वर्ष के समान फाल्गुन मास के
शुक्ल पक्ष की आमलकी एकादशी आई। उस दिन राजा, प्रजा तथा बाल-वृद्ध सबने
हर्षपूर्वक व्रत किया । राजा अपनी प्रजा के साथ मंदिर में जाकर कुम्भ स्थापित करके
धूप, दीप, नैवेद्य, पंचरत्न आदि से धात्री (आंवले) का पूजन करके इस प्रकार स्तुति करने
लगा-हे धात्री ! आप ब्रह्माजी द्वारा उत्पन्न हुए हो और समस्त पापों को नष्ट करने
वाले हो, अत: आपको नमस्कार है । अब
आप मेरा अर्ध्य स्वीकार करें। आप रामचन्द्र जी द्वारा सम्मानित हो । मैं आपसे
प्रार्थना करता हूँ कि आप मेरे समस्त पापों को समूल नष्ट करें।
मंदिर में सबने रात्रि को जागरण किया । रात के समय
वहाँ एक बहेलिया आया, जो अत्यन्त पापी और
दुराचारी था। वह अपने कुटुम्ब का पालन जीव-हिंसा करके किया करता था। उस दिन उसे
कोई शिकार नहीं मिला था, अत: निराहार रहना पड़ा ।
भुख तथा प्यास से अत्यन्त व्याकुल वह बेहलिया मंदिर के एक कोने में बैठ गया और
विष्णु भगवान् तथा एकादशी महात्म्य की कथा सुनने लगा। इस प्रकार अन्य मनुष्यों की
तरह उसने भी सारी रात जागकर बिता दी। प्रातः काल घर जाकर उसने भोजन किया । कुछ समय
बाद बहेलिये की मृत्यु हो गई।
आमलकी एकादशी का व्रत व जागरण करने के कारण अगले
जन्म में उस बहेलिये ने राजा विदूरथ के घर में जन्म लिया । उसका नाम वसुरथ रखा गया
। युवा होने पर वह चतुरंगिणी सेना तथा धन-धान्य से युक्त होकर दस हजार ग्रामों का
पालन करने लगा। वह तेज में सर्य के समान, कांति मे. चन्द्रमा के समान
ओर क्षमा मे, पृथ्वी के समान था । वह
अत्यन्त धार्मिक, सत्यवादी, कर्मवीर एवं विष्णु भक्त राजा बना । प्रजा का समान भाव से पालन, यज्ञ करना तथा दान देना उसका नित्य का कर्तव्य था । एक दिन राजा
वसुरथ शिकार खेलने के लिए वन गया । दैवयोग से वह मार्ग भूल गया और एक वृक्ष के
नीचे सो गया । थोड़ी देर बाद पहाडी म्लेच्छ वहाँ आए और राजा को अकेला देखकर 'मारो-मारो' की आवाजें लगाते हुए राजा
की ओर दौड़े। वे म्लेच्छ कहने लगे कि इसी दुष्ट राजा ने हमारे माता-पिता, पुत्र-पौत्र आदि अनेक संबंधियों को मारा है तथा देश से निकाल दिया
है। अतएव इसको अवश्य मारना चाहिए।
ऐसा कहकर वे मलेच्छ अस्त्रों से प्रहार करने लगे।
अनेक अस्त्र-शस्त्र राजा के शरीर पर गिरते ही नष्ट हो जाते और उनका वार पुष्पों के
समान प्रतीत होता । अब उन म्लेच्छ अस्त्र-शस्त्र उलटा उन्ही पर प्रहार करने लगे
जिससे वे घायल होने लगे। इसी समय राजा को भी मूर्छा आ गई। उस समय राजा शररि से एक दिव्य स्त्री उत्पन्न हुई। वह स्त्री
अत्यन्त सुन्दर वस्त्रों तथा आभूषणों से अलंकृत थी। मगर उसकी भृकुटी टेढ़ी थी और
आंखों से लाल-लाल अग्नि निकल रही थी। वह स्त्री म्लेच्छों को मारने दौड़ी और थोड़ी
ही देर में उसने सब म्लेच्छों को काल के गाल में पहुंचा दिया । जब राजा सोकर उठा
तो इन म्लेच्छों को मरा हुआ देखकर सोचने लगा कि इन शत्रुओ को किसने मारा है ? वह विचार कर ही रहा था कि तभी आकाशवाणी हुई- हे राजा! इस संसार में
विष्णु भगवान् के अतिरिक्त कौन तेरी सहायता कर सकता है। इस आकावाणी को सुनकर राजा
अपने नगर को चला आया और सुखपूर्वक राज्य करने लगा ।
महर्षि वशिष्ठजी आगे बोले - हे राजन् ! यह आमलकी
एकादशी के व्रत का प्रभाव था । जो मनुष्य इस आमलकी एकादशी का व्रत करते हैं, वे सभी कार्यों में सफल होकर उन्त में विष्णु लोक को प्राप्त होते
हैं।
कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा के दिन गोवर्धन पूजा का
विधान किया गया है। इसे अन्नकूट के नाम से भी अभिहित किया जाता है । उस दिन सभी
देव-मन्दिरो मे अन्नकूट की सजावट की जाती है, जिसमे देवमूर्ति के समक्ष नाना प्रकार के पकवान बनाकर नैवेद्य के रूप
मे अर्पित किए जाते है। इस श्रृंगार को देखने के लिए मन्गिरो मे उस दिन भारी भीड़
उमड़ पड़ती है। पौराणिक मान्यता के अनुसार उस दिन ब्रजवासी नन्द बाबा के नेतृत्व
में इन्द्र की पूजा किया करते थे। जिसे इन्द्रयाग कहा जाता है । एक बार भगवान्
श्री कृष्ण ने नन्दबाबा को इन्द्र की पूजा करने से रोक दिया । उन्होने कहा कि, सब लोग मिलकर गोवर्धन नाथ की पूजा करे तो विशेष लाभ होगा। उनके कथनानुसार सभी ब्रजवासियो ने वैसा
ही किया और छप्पन भोग लगाकर गोवर्धन नाथ की पूजा की। इसके फल स्वरूप इन्द्र देव
कुपित हो गए और उन्होने अपने मेघो को आदेश दिया कि, तुम लोग मूसलाधार वृष्टि करके समस्त ब्रजमण्डल को बहा
दिया। मेधो ने लगातार सात दिनो तक ब्रज पर घनघोर वर्षा की इस प्रकार का दृष्य देखकर भगवान् श्रीकृण ने गोवर्धन पर्वत को अपने हाथ की कानी उँगली पर
धारण कर लिया। उस विशालकाय पर्वत के नीचे सभी गोपो को सुरक्षित रखा। भगवान् की इस
अदभुत लीला को देखकर आश्चर्यचकित हो इन्द्र घबरा उठा। इन्द्र को
श्रीकृष्ण मे ईश्वरत्व का भान हुआ। उसने श्रीकृष्ण से श्रमा-याचना की और उनका
दुग्धाभिषेक किया । वह अभिक दूध जिस स्थान मे बहकर एकत्रित हुआ, उसे सुरभि-कुण्ड के नाम से जाना जाता है । इस प्रकार भगवान्
श्रीकृष्ण द्वारा इन्द्र का मान- मर्दन किये जाने पर अन्नकूट का त्योहार विजय-पर्व
के रूप में मनाया जाता है।