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शनिवार, 29 मई 2010

अपरा (अचला) एकादशी और निर्जला एकादशी व्रत कथा




अपरा (अचला) एकादशी और निर्जला एकादशी व्रत कथा

* अपरा (अचला)
एकादशी :-

(ज्येष्ठ कृष्ण
एकादशी)

कृष्ण पक्ष के ज्येष्ठ मास की एकादशी को अपरा अथवा अचला एकादशी कहा जाता है । इस दिन भगवान् त्रिविक्रम की पूजा की जाती है । इसके करने से कीर्ति, पुण्य तथा धन की वृद्धि होती है तथा भूत-प्रेत जैसी निकृष्ट योनियों से मुक्ति मिलती है । इस दिन चंदन, कपूर, गंगाजल सहित भगवान विष्णु की पूजा की जानी चाहिए ।

* अपरा (अचला) एकादशी कथा :-

पुलकित मन से भगवान् श्री कृष्ण को नमस्कार करने के बाद धर्मराज युद्धिष्ठिर ने भगवान् कृष्ण से प्रार्थना की - हे महाराज ! अब मेरी इच्छा ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी के नाम, महात्म्य, पजा-विधान आदि के बारे में विस्तार पूर्वक जानने की है। सो आप कृपा करके सुनाइये ।

श्री कृष्ण भगवान् कहने लगे - हे राजन् ! इस एकादशी का नाम अपरा है । पर अपार धन देने वाली है । जो मनुष्य इस व्रत को करते है, संसार में उनको यश तथा कीर्ति की प्राप्ति होती है । अपरा एकादशी के व्रत के प्रभाव से ब्रह्महत्या, भूत, योनि, तथा पर-निन्दा आदि तक के सब पाप दूर हो जाते है । इस व्रत से पर-स्त्री-गमन, झूठी गवाही देना, असत्य भाषण, कल्पित शास्त्र पढ़ना या बनाना. झूठा ज्योतिषी झूठा वैद्य बनना आदि तक के पाप नष्ट हो जाते है । जो क्षत्रिय होकर युद्ध से भाग जाते है, वे नरकगामी होते है, परन्तु अपरा एकादशी का व्रत करने से उन्हें भी स्वर्ग की प्राप्ति होती है । 

जो शिष्य गुरु से शिक्षा ग्रहण करते है और बाद में उनकी निंदा करते हैं, वे अवश्य नरक में पड़ते है, परन्तु अपरा एकादशी का व्रत करने से वह भी इस पाप से मुक्त हो जाते है ।

जो फल तीनों पुष्कर में कार्तिक पूर्णिमा को स्नान करने से या गंगा तट पर पितरों को पिंडदान करने से प्राप्त होता है, वही अपरा एकादशी का व्रत करने से प्राप्त होता है । मकर के मूर्य में प्रयागराज के स्नान से, शिवरात्रि व्रत से शिंह राशि के बृहपति में गोमती नदी के स्नान से, कुम्भ में केदारनाथ या बदरिकाश्रम की यात्रा, सूर्यग्रहण में कुरुक्षेत्र के स्नान, स्वर्ण अथवा हाथी-घोड़ा दान करने से अथवा नव-प्रसूता गो दान से जो फल मिलता है, वहीं फल अपरा एकादशी के व्रत से मिलता है । 

यह वृत पापरूपी वृक्ष को काटने के लिए कुल्हाड़ी है । पापरुपी ईंधन को जलाने के लिए अग्नि, पापरूपी अंधेरे के लिए सूर्य के समान है । अपरा एकादशी का व्रत तथा भगवान का पूजन करने से मनुष्य सब पापों से छूटकर विष्णुलोक को जाता है। हे राजन् ! यह अपरा एकादशी की कथा मैंने लोकहित के लिए कही है, इसके पढ़ने अथवा सुनने से मनुष्य सब पापों से छुट जाता है इसमें
संदेह नहीं है 


* निर्जला एकादशी :-

(ज्येष्ठ शुक्ल
एकादशी)

वर्ष की चौबीस एकादशियों में ज्येष्ठ के शुक्ल पक्ष की एकादशी सबसे बढ़कर फल देने वाली है। इस एकादशी का व्रत रखने से ही वर्ष भर की एकादशियों के व्रत का फल प्राप्त हो जाता है । इस एकादशी में एकादशी के सूर्योदय से द्वादशी के सूर्यास्त तक जल भी न ग्रहण करने का विधान होने के कारण इसे निर्जला एकादशी कहा जाता है। ज्येष्ठ मास में दिन बहुत बड़े होते है और प्यास भी बहुत अधिक लगती है। ऐसी दशा में इतना कठिन व्रत रखना सचमुच बड़ी साधना का काम है ।

* व्रत का विधि-विधान :-

इस व्रत के दिन निर्जल व्रत करते हुए शेषशायी रूप में भगवान विष्णु की आराधना का विशेष महत्व माना गया है। जल-पान निषेध होने पर भी इस व्रत में फलाहार के पचात् दूध पीने का विधान है। इस एकादशी का व्रत करने के पश्चात् द्वादशी को ब्रह्म-बेला में उठकर स्नान कर ब्राह्मणों को भोजन कराकर दान देना चाहिए । इस एकादशी के दिन अपनी शक्ति और सामर्थ्यानुसार ब्राह्मण को अनाज, वस्त्रछतरी, फल, जल से भरे कलश और दक्षिणा देने का विधान है। सभी व्यक्ति प्रायः मिट्टी के धड़े अथवा सुराहियों, पंखों और अनाज का दान तो करते ही है, इस दिन मीठे शर्बत की प्याऊ भी लगवाते हैं ।

निर्जला एकादशी माहात्म्य :-

श्रीसूत जी बोले- हे ऋषियों  ! अब सर्व व्रतो में श्रेष्ठ सर्व एकादशियो में उत्तम निर्जल एकादशी की कथा सुनो। एक बार पाण्डव पुत्र भमिसेन ने वेदव्यास जी से पूछा-हे महाज्ञानी पितामह ! मेरे चारों भाई युधिष्ठिर, अर्जुन, नकुल, सहदेव और माता कुन्ती तथा भार्य्या द्रौपदी एकादशी के दिन कभी भोजन नहीं करते, वे मुझे भी सदैव ऐसा करने को कहते रहते है, मै  उनसे कहता हूं कि मुझ से तो भूख सही नहीं जाती मै दान और विधिवत् भगवान् की पूजा आराधना करूंगा, सो कृपा पूर्वक ऐसा उपाय बताइए कि उपवास किए बिना मुझे एकादशी के व्रत का फल प्राप्त हो सके, तो व्यास जी बोले, यदि स्वर्ग भला और नरक बुरा प्रतीत होता है 

तो हे भमिसेन ! दोनों पक्षों की एकादशी  को भोजन न करो । तब भमि ने निवेदन किया है महामुनि ! जो  कुछ मैं कहता हूं वह भी सुनो, यदि दिन में एक बार भोजन न मिले तो मुझ से नहीं रहा जातामै उपवास कैसे करू ? मेरे उदर में वृक नामक अग्नि का निवास है बहुत सा भोजन करने से मेरी भूख शान्त होती है

हे मुनि ! में वर्ष भर केवल एक ही वृत कर सकता हूं, सो आप कृपा करके केवल एक व्रत बताइए जिसे विधिपूर्वक करके मै स्वर्ग को प्राप्त हो सकूं, वह निश्चय करके कहिए जिससे मेरा कल्याण हो । व्यास जी ने कहा हे भमिसेन ! मनुष्यों के लिए सर्वोत्तम वेद  का धर्म है, किन्तु कलियुग में भी उस धर्म पर चलने की शक्ति किसी मे नही है। इसलिए थोड़े धन और थोड़े कष्ट से होने वाला सरल उपाय जो पुराणों में लिखा है वह मै तुमको बताता हूं। दोनों पक्षो की एकादशियो मे जो मनुष्य भोजन नहीं करते वे नरक नही जाते ।

यह वचन सुनकर महाबली भमिसेन पहले तो पीपल पत्र की भांति कांपने लगे फिर डरते हुए बोले हे पितामह । मै उपवास करने में असर्मथ हूं, इसलिए हे प्रभु निश्चय करके बहुत फल देने वाला एक व्रत मुझ से कहिए। तो व्यास जी बोले- वृष मिथुन राशि के सूर्य में जेष्ठ मास में शुक्ल पक्ष में जो एकादशी होती हैउसका निर्जला व्रत यत्न से करना उचित है । स्नान और आचमन करने से जलपान वर्जित, केवल एक घूंट जल से आचमन करे अधिक पीने से व्रत खण्डित हो जाता है

एकादशी के सूर्य उदय से लेकर द्वादशी के सूर्योदय तक लक गृहण न करे ओर न भोजन करे तो बिना परिश्रम ही सभी द्वादशी युक्त एकादशियों का फल मिल जाता है, द्वादशी को प्रातः काल स्नान करके स्वर्ण और जल ब्राह्मणों को दान करे, फिर ब्राह्मणो सहित भोजन करे । 

हे भमिसेन इस विधि से व्रत करने से जो फल मिलता है वह सुनो, सारे वर्ष में जो एकादशियां आती है उन सब का फल निःसन्देह केवल इस एकादशी के व्रत से प्राप्त होता है। शंख, चक्र, गदाधारी भगवान् विष्णु से स्वयं वह मुझ से कहा है कि सब त्याग कर केवल मेरी शरण में आओ और सुन, एकादशी निराहार व्रत करने से मनुष्य सब पापो से छूट जाता है, सब तीर्थों की यात्रा तथा सब प्रकार के दोनो मैं जो फल मिलता है 

वह सब इस एकादशी के व्रत से मिल जाता है कलियुग में दान देने से भी ऐसी सदगति नहीं होती, अधिक क्या कहूं ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की एकादशी को जल और भोजन न करे । हे वृकोदर इस वृत से जो फल मिलता है उसको सुनो ! सब एकादशी व्रतो से जो धन-धान्य व आयु आरोग्यता आदि की वृद्धि होती है वे सब फल निःसन्देह इस एकादशी के व्रत से प्राप्त होते हे । 

हे नरसिंह भमि मै तुझ से सत्य कहता हूं कि इसके करने से अति भयंकर काले पीले रंगो वाले यमदूत भय देने वाला दंड और फांसी सहित उस मनुष्य के पास नहीं आते, बल्कि पीताम्बर धारी हाथो मे चक्र लिए हुए मोहिनी मूर्ति विष्णु के दूत अन्त समय में  विष्णु लोक में ले जाने को आ जाते है, अतः जल रहित व्रत करना उचित है फिर जल और गोदान करने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। 

वैशमपायन जी कहते है- हे जनमेजय । तब से भमिसेन यह व्रत करने लगे और तभी से इसका नाम भमिसेनी हुआ। हे राजन्! इसी प्रकार तुम सब पाप दूर करने के लिए उपवास करके विष्णु की पूजा करो और इस प्रकार प्रार्थना करो कि हे भगवान् ! मे आज निर्जल व्रत करूंगा। हे देवेश अनन्त ! द्वादशी को भोजन करूंगा। यह कहकर सब पाप की निवृति के लिए श्रद्धा से इन्द्रियों को वश करके व्रत करे। स्त्री व पुरूष के मन्दराचल पर्वत के समान (बड़े से बड़े) पाप भी इस एकादशी के प्रभाव से नष्ट हो जाते हैं, यदि गाय दान न कर सके तो वस्त्र में बांधे स्वर्ण के साथ घड़ा दान करे, निर्जला एकादशी को स्नानदान, तप, होमादि जो धर्मकार्य मनुष्य करता है सो सब अक्ष्य हो जाता है। 

हे राजन् ! जिसने एकादशी का विधिवत् व्रत कर लिया उसे और धर्माचार करने की क्या आवश्यकता है? सब प्रकार के व्रत करने से विष्णुलोक प्राप्त होता है और हे कुरुश्रेष्ठ! एकादशी के दिन जो मनुष्य अन्न भोजन करते हैं वह पापी है ।  इस लोक में चाण्डल होते और अन्त में दुर्गति को पाते हैं, इस एकादशी का व्रत करके दान देने वाले मोक्ष को प्राप्त होगे । ब्रह्महत्या, मदिरापान, चोरी, गुरु से द्वेष और मिथ्या (झूठ)बोलना यह सब महापाप द्वादशयुक्त एकादशी का व्रत करने से क्षय हो जाते हैं, हे कुन्तीपुत्र भमि ! अब इस व्रत को विधि सुनो। यह व्रत स्त्री व पुरूषों को अत्यन्त श्रद्धा से इन्द्रियो को वश में करके करना चाहिए । क्षीरशायी भगवान् की पूजा करके गौदान करे । दूध देने वाली गौ, मिष्ठान और दक्षिणा सहित विधि पूर्वक दान करे। 

हे श्रेष्ठ भमि ! इस प्रकार भली भांति ब्राह्मणों के प्रसन्न होने से श्रीविष्णु भगवान् संतुष्ट होते है। जिसने यह महाव्रत नहीं किया उसने आत्मद्रोह किया। वह दुराचारी है और जिसने यह व्रत किया उसने अपने एक सौ अगले सम्बन्धियों को अपने सहित स्वर्ग पहुंचा दिया और मोक्ष को प्राप्त हुआ । जो मनुष्य शांति से दान और पूजा करके रात्रि को जागरण करते है और द्वादशी के दिन अन्न, जल, वस्त्र, उत्तम शय्या व कुण्डल सुपात्र ब्राह्मण को दान करते है वह निसन्देह स्वर्ण के विमान पर बैठ कर स्वर्ग को प्राप्त होते है । जो फल नाशनी अमावस्या अथवा सूर्य ग्रहण में दान-पुण्य करके मिलता है वही फल इसके सुनने से मिलता है । 

दंत धावन कर विधि अनुसार बिना अन्न तथा जल के व्रती मनुष्य इस एकादशी का व्रत और आचमन जल के न पीकर द्वादशी के दिन देवदेवेश त्रिविक्रम भगवान् की पूजा करे । जल, पुष्प, धूप, दीप, अर्पण कर यताविधि पूजन करके प्रार्थना करे कि हे देवेश ! हे हीषकेश, हे संसार सागर से पार कराने वाले इस घड़े के दान करने से मुझे मोक्ष प्राप्त हो । हे भमिसेन ! फिर अपनी सामर्थ्य अनुसार अन्न, वस्त्र, छत, फल आदि घड़े पर रखकर ब्राह्मणों को दान देवे, तत्पश्चात् श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को भोजन करवाकर आप भी मौन हो कर भोजन करे । इस प्रकार जो इस व्रत को यथा विधि करते है सब पापो से छूट कर मुक्त हो जाते है ।