(चैत्र कृष्ण एकादशी)
कृष्ण पक्ष के फाल्गुन मास
की एकादशी पापमोचनी एकादशी कहलाती है । पापमोचनी एकादशी का व्रत जन्म-जन्मांन्तरो
के पापों को नष्ट कर देता है सभी प्रकार की समृद्धि, सुख और अन्त में मोक्ष प्रदायक इस व्रत को भगवान् विष्णु की पूजा
अराधना करने का विधान है।
* पापमोचनी एकादशी कथा :-
प्राचीन काल में चैत्ररथ
नामक एक अति सुन्दर वन था। इस वन में देवराज इंद्र गंधर्व कन्याओं, अप्सराओं तथा देवताओं सहित स्वच्छन्द विहार करते थे। इस वन में च्यवन
ऋषि के पुत्र मेधावी नामक ऋषि तपस्या करते थे। ऋषि शिव भक्त तथा अप्सराएं शिवद्रोही कामदेव की अनुचरी थी ।
एक समय की बात है कामदेव ने
बदले और द्वेष की भावना के तहत ऋषि मेधावी की तपस्या को भंग करना चाहा । इसी
उदेश्य की पूर्ति के लिए कामदेव ने मंजुघोषा नामक अप्सरा को भेजा । उसने अपने
नृत्य-गान और हाव-भाव से ऋषि का ध्यान भंग किया । अप्सरा के हाव-भाव और नृत्य-गान से
ऋषि उस पर मोहित हो गए । फलस्वरूप ऋषि मंजुघोषा के साथ रमण करने लगे और उन्हें दिन
और रात का कुछ विचार नहीं रहा ।
दोनों ने कई साल साथ-साथ
गुजारे । एक दिन जब मंजुघोषा ने जाने की आज्ञा माँगी तो
ऋषि ने उसे रोकना चाहा । तब मंजूघोषा ने ऋघि को समय का अहसास दिलाया। उन्होने समय
की गणना की तो उन्हें अहसास हुआ कि पूरे 57 वर्ष बीत चुके थे। तब ऋषि को वह अप्सरा काल के समान प्रतीत होने लगी।
उन्होने अपने को रसातल में पहुँचाने का एकमात्र कारण मंजुघोषा को समझकर, क्रोधित होकर उसे पिशाचनी
होने का श्राप दिया । श्राप सुनकर मंजुघोषा भयभीत हो गई और ऋषि के चरणों में गिरकर प्रार्थना करने लगी । काँपते
हुए उसने ऋषि से श्राप के निवारण का उपाय
पूछा। बहुत अनुनय-विनय करने पर ऋषि का दिल पसीज गया । उन्होने कहा - " यदि
तुम चैत्र कृष्ण पापमोचनी एकादशी का विधिपूर्वक व्रत करो तो इसके करने से तुम्हारे
पाप और श्राप समाप्त हो जाएंगे और तुम
पुनः अपने पूर्व रूप को प्राप्त करोगी ।" मंजुघोषा को मुक्ति का विधान बताकर
मेघावी ऋषि अपने पिता महर्षि च्यवन के आश्रम चल पड़े।
श्राप की बात सुनकर च्यवन
ऋषि ने कहा - "पुत्र यह तुमने क्या अनर्थ कर दिया। श्राप देकर अपना सारस पुण्य श्रीण कर दिया । अतः तुम भी पापमोचनी एकादशी का व्रत को करो । इस
प्रकार पापमोचनी एकादशी का व्रत करके मंगृघोषा ने श्राप से तथा ऋषि मेधावी ने पाप से
मुक्ति पाई । पापमोचनी एकादशी के व्रत को करने से सब पाप नष्ट हो जाते है । इस
कथा को पढने तथा सुनने से एक हजार गोदान का फल मिलता है ।