* कजली तीज :- (सातूड़ी तीज)
श्रावण मास की तीज को हरियाली तीज का त्यौहार मनाया जाता है। उसी प्रकार से भादों मास के कृष्ण पक्ष की तीज को कजरी तीज का त्यौहार मनाया जाता है । इसे "बूढी तीज" भी कहा जाता है । इस दिन महेश्वरी वैश्य गेहुं, जौ, चने और चावल के सत्त में घी, मेवा डालकर विभिन्न प्रकार के पकवान बनाते है तथा चन्द्रोदय के बाद उसी का भोजन करते है । इसलिए इसे "सातुड़ी तीज" अथवा "सतवा तीज" भी कहा जाता है। इस दिन विशेषतौर पर गाय की पूजा करी जाती है। आटे की सात लोइयां बनाकर उन पर घी, गुड़ रखकर गाय को खिलाने के बाद ही भोजन किया जाता है ।
कुछ लोग इस दिन हरियाली तीज की तरह सिंजारे भेजते है । इस दिन बहुएं अपनी सास को चीनी और रूपये का भायना निकालकर देती हैं | यह त्यौहार खासतौर पर पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार में मनाया जाता है। कजरी की प्रतिद्वंद्विता भी होती है। नावों पर चढ़कर लोग कजरी गीत गाते हैं । ब्रज के मल्हारों की ही तरह मिर्जापुर तथा बनारस का यह प्रमख वर्षागीत माना जाता है। इस दिन घरों में मिठाई तथा पकवान बनाए जाते है । झूले भी डाले जाते है । ग्रमीण भाषा में इसे "तीजा" कहा जाता है
* कजली तीज कथा :-
एक साहूकार के चार बेटे और बहूएं थीं। तीनों बडी बहूएं भरे पूरे परिवार से थी । परन्तु छोटी बहू के मायके में कोई नहीं था । बड़ी तीज पर तीनों बहूओं के घर से सत्तू आया, लेकिन छोटी बहू का मन इस विचार से दुःखी हो गया कि उसके लिए सत्तू कहाँ से आएगा। उसने अपने पति से कहा कि - "मेरे लिए भी सत्तू लेकर आना, चाहे कुछ भी करना पड़े।" । उसके पति ने उसके लिए सत्तू लाने का पूरा प्रयास किया परन्तु सफलता नहीं मिली। जब वह शाम को घर लौटा और अपनी पत्नि का उदास चेहरा देखा तो वह रात भर सो ना सका । दुसरे दिन तीज थी ।
वह रात को अंधेरे में ही घर से निकल गया और एक बनिये की दुकान में घुस गया। वहां चने की दाल लेकर चक्की में पीसना शुरू कर दिया । चक्की की आवाज सुनकर बनिये के घरवाले जाग गए। उन्होने उसे पकड़कर पूछा - "यहां क्या कर रहे हो।" इस पर उसने जवाब दिया कि - "कल सातूड़ी तीज है और मेरी पत्नि के पीहर में कोइ! नहीं है, अत: उसके लिए सत्तू चोरी करने आया हूं। आपकी दुकान में दाल, चीनी और घी सभी था, इसलिए आपके यहां से सत्तू बनाकर ले जा रहा था ।" यह सुनकर बनिया बोला- "तुम अपने घर जाओ। आज से तुम्हारी पत्नि हमारी धर्म बेटी हुई ।" वह घर लौट आया ।
दूसरे दिन सवेरे ही बनिये ने नौकरों के साथ चार तरह के सत्तू के पिंड़े, साड़ी और अन्य पूजा का सामान उसके घर भिजवा दिया । जेठानियां यह सब देखकर कहने लगी कि - "तुम्हारे पीहर में तो कोई नहीं है, फिर यह सब कहां से आया।" तब देवररानी ने उन्हे सारी बात बताकर कहा की यह सब मेरे धर्म पिता ने भेजा है
* करवा-चौथ पूजन विधि :-
कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को करवा चौथ अथवा करक-चतुर्थी के नाम से जाना जाता है। इस दिन सौभाग्यवती स्त्रियो के लिए गणेशजी की पूजा करने का विधान है। भारतीय वाङ्मय में गणेशजी की पूजा किसी भी कार्य के प्रारम्भ मे करने की प्रथा सदैव से ही रही है. क्योकि सभी देवो मे इन्हे अनादि देव माना गया है।
अत: गणेश जी की पूजा सर्व प्रथम होती है। भगवान् शिव-पार्वती ने भी अपने विवाह-काल मे सर्व प्रथम गणेश जी की पूजा की थी। इसका उल्लेख कवि-कुल-सम्राट गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने महाकाव्य मे किया है। मुनि अनुशासन गनपतिहिं, पूजे शम्भु भवानि । अस सुनि संशय करिय नहिं, सुर अनादि जिय जानि । गणेश जी विघ्न विनाशक के रुप मे माने जाते है, इसलिये किसी भी कार्य की निर्विघ्न पूर्णता के लिए इनकी पूजा को आवश्यक कहा गया है।
करवा चौथ के दिन व्रती को नित्य कर्म से निर्वत होकर गणेश जी की पूजा के लिए मन मे दृढ. संकल्प करनी चाहिए कि, मै आज दिन- भर निराहार रहकर गणेश जी के ध्यान मे तत्पर रहुँगी और रात्रि मे जब तक चन्द्रोदय नही होगा तब तक निर्जल व्रत करूंगी | व्रत के दिन सायंकाल मे घर की दिवार को गोबर से लीपकर उसके ऊपर गेरू की स्याही बनाकर उससे गणेश, पार्वती, शिव कार्तिकेय आदि देवो की प्रातिमा बनानी चाहिए। साथ ही एक वटवृक्ष (बरगद का पेड़), मानव की आकृति भी उस दीवार पर चित्रित करनी चाहिए।
उस मानवकृति के हाथ मे छलनी भी होनी चाहिए। पास मे उदित होते। चाँद की आकृति भी उस दीवार पर चित्रित करनी चाहिए। पूजन-काल में उस दीवार के नीचे दो करवो मे जल भरकर रखना चाहिए। उस करवे के गले मे नारा लपेटकर सिंदूर से रंगना चाहिए और उसकी टोंटी मे सरई की सींक लगानी चाहिए। तदानन्तर करवे के ऊपर चावल से भरा हुआ कटोरा रखकर सुपारी भी रखानी चाहिए। नैवेद्य के रूप मे उस पर चावल का बना हुआ लड्डू(शकरपिण्डी) रखे। इसके अतिरिक्त प्रतिमा के पास पूड़ी, खीर भी नैवेद्य के रूप में अर्पित करे।
इसके अतिरिक्त ऋतु फल के अनुसार सिंघारा, केला, नारंजी, गन्ना आदि, जो कुछ भी पदार्थ उपलब्ध हो उसे अर्पित कर भक्तिपूर्वक कथा श्रवण करे। कथा के अन्त मे, पूर्व से स्थापित उन करवो को दायिनी और से बाँयी ओर एवं बाँयी ओर रखे हुए करवे को दाहिनी ओर घुमाकर रखे।इस प्रक्रिया को लोक-भाषा मे "करवा फेरना" कहते है। इस प्रकार विधि-विधान पूर्वक पूजन करने से व्रती के ऊपर गणेश जी की प्रसन्नता होती है। और उसके फलस्वरूप उसे मनवांछित फल की प्राप्ति एवं अखण्ड सौभाग्यता मिलती है।
* साहुकार-कन्या का कथा :-
एक साहुकार के सात पुत्र और एक पुत्री थी। कार्तिक कृष्ण चतुर्थी के । दिन साहुकार की पत्नी, उसकी सभी बहुओ एवं कन्या ने संयुक्त रूप व्रत का अनुष्ठान किया। पूजन के पश्चात् साहुकार के सभी पुत्र भोजन करने बैठे। भोजन करते समय साहुकार के पुत्रो ने अपनी बहन से भी। भोजन करने का आग्रह किया। बहन ने उत्तर दिया- तुम सभी लोग भोजन कर लो। मै चन्द्रोदय होने के पश्चात् अर्घ्य दे लेने के बाद ही भोजन करूंगी। बहन की बात सुनकर भाईयो ने कुछ दूरी पर मैदान में अग्नि जला दी और उस अग्नि के प्रकाश को छलनी मे-से दिखाकर कहा- बहन! देखो, सामने चन्द्रमा निकल आया है। अब तुम भी भोजन कर लो। भाई की बात सुनकर उस कन्या ने अपनी भाभीयो से भी यही बात दोहरायी। उसकी भाभीयो इस कपट-पूर्ण बात को जानती थी। उन्होने उससे कहा- अभी चाँद नही निकला है। तुम्हारे भाईयो ने अग्नि के प्रकाश-द्वारा तुम्हे चन्द्रमा के उदित होने का भास कराया है।
परन्तु अपनी भाभीयो ने उस कन्या ने कोई ध्यान न देकर अर्घ्य दे डाला और उसके भाद भोजन भी कर लिया। उसके इस कृत्य से गणपति भगवान् अत्याधिक रूष्ट हो गये। जिसके फलस्वरूप उस कन्या का पति भयंकररोग से ग्रस्त हो गया। चिकित्सा आदि कराने में संचित धन नष्ट हो गया और वह अत्यन्त शोकाकुल होकर कष्ट भोगने लगी।
कष्ट भोगने के बाद जब उसे अपनी भूल का ज्ञान हुआ तो वह बारम्बार मन मे पश्चात्ताप करने लगी। उसने अपनी भूल के लिए गणेश जी से क्षमा -याचना की और व्रत को पुनः भक्तिपूर्वक पूरा किया। उसकी आराधना से गणेश जी प्रसन्न हो गये और सभी कष्टो का निवारण कर उसे धन-धान्य से पूर्ण कर दिया। अतएव इस व्रत को जो प्राणी विधिपूर्वक सम्पन्न कर लेता है
उसकी सभी आशएँ पूरी हो जाती है। इस प्रकार कथा श्रवण करने के पश्चात् चन्द्रोदय हो जाने पर चन्द्र देव को अर्ध्य-प्रदान करना चाहिए। अर्घ्य-दान काल में "ॐ चन्द्राय नमः" इस मन्त्र का उच्चारण भी करते रहना चाहिए। इसके अनन्तर चार बार परिक्रमा कर चंद्रद्देव को दण्डवत करें।इतना कर लेने के पश्चात् घर के वृद्ध जनो को भोजन कराकर स्वयं भोजन करे। पूजाकाल मे व्यवहत पदार्थ-अर्पित किये गये नैवेद्य आदि को ब्राह्मणो को दान कर देना चाहिए| इस प्रकार भक्तिभाव से जो लोग इस चतुर्थी व्रत को करते है उनकी सभी कामनाएं पूर्ण हो जाती है।
* करवा-चौथ उद्यापन-विधि :-
किसी भी व्रत को पूर्णता पर ही उद्यापन करनी चाहिए। व्रत की तिथि पर ही उद्यापन किया जाता है। जिस वर्ष मे उद्यापन करना हो उस वर्ष की कार्तिक कृष्ण चतुर्थी के दिन व्रत समाप्त होने के पश्चात एक थाली को कुमकुम से रँजित कर चार-चार की संख्या मे पूड़ी और उस पर शक्कर रखकर तेरह स्थानो पर लगा दें और उस पर एक नयी साड़ी, ब्लाउज, दक्षिणा आदि रखकर अपनी सास को अर्पण कर दें। जिनकी सास न हो उन्हें चाहिए की, वे किसी सधवा ब्राह्मणी को दान कर दें। सम्पूर्ण कृत्य प्रतिपादित करने के अनन्तर ही स्वयं अन्न ग्रहण करे। ऐसा करने से उनका सौभाग्य अक्षय बना रहता है।