- यह व्रत शुक्रवार के दिन रखा जाता है। इस व्रत को
प्रत्येक श्रद्धालु, कुंआरी कन्या, स्त्री या पुरुष रख सकते हैं यदि पति-पत्नी इस व्रत को मिलकर रखें तो
मां लक्ष्मी अति प्रसन्न होती हैं।
- यह व्रत 7, 11, 21,31, 51, 101 या उससे भी अधिक शुक्रवारों की मन्नत एवं मनोकामना मानकर रखा जा सकता
है।
- मां वैभवलक्ष्मी का व्रत घर पर ही श्रद्धापूर्वक
करना चाहिए, किंतु यदि किसी शुक्रवार को
आप घर से बाहर हों तो उस शुक्रवार को व्रत स्थगित करके अगले शुक्रवार को करें।
- बीमारी की हालत में भी वह शुक्रवार छोड़कर अगले
शुक्रवार को व्रत रखें। कुल मिलाकर व्रतों की संख्या उतनी होनी चाहिए, जितने शुक्रवारों की आपने मन्नत मानी है। अंतिम शुक्रवार को
विधिपूर्वक मां वैभवलक्ष्मी के व्रत का उद्यापन करना चाहिए।
- व्रत संपूर्ण हो जाने पर लक्ष्मी पूजन के उपरांत
श्रद्धापूर्वक सात कन्याओं को भोजन कराना
चाहिए।
- व्रतकथा प्रारंभ करने से पूर्व एक चौकी (एटरे) पर
चावल की एक छोटी-सी ढेरी बनाकर उस पर पानी से भरा तांबे का कलश स्थापित करें। उस
पर कटोरी रखनी चाहिए। उसी कटोरी में सोने-चांदी की कोई वस्तु (आभूषण आदि) या चांदी
का रुपया रखना चाहिए।शुद्ध घी का दीपक तथा अगरबत्ती जलाएं। तत्पश्चात मां के सभी
स्वरूपों व 'श्रीयंत्र' को श्रद्धापूर्वक प्रणाम करना चाहिए। ऐसा करने से व्रत करने वाले
प्राणी से मां वैभवलक्ष्मी अति प्रसन्न होती हैं। वह भक्त की सभी मनोकामनाओं को
अति शीघ्र पूर्ण करती हैं।
- व्रतकथा प्रारंभ करने से पूर्व प्रसाद के रूप में
कोई भी मीठी वस्तु खीर, गुड़-शक्कर आदि या नैवेद्य
बनाकर रख लेना चाहिए। पूजा-अर्चना करने से पूर्व मां वैभवलक्ष्मी का स्तवन व
स्तुति करनी चाहिए।
* श्री वैभवलक्ष्मी व्रतकथा :-
लाखों की जनसंख्या को अपने
में समेटे कुशीनगर एक महानगर था। जैसी कि अन्य महानगरों की जीवनचर्या होती है, वैसा ही कुछ यहां भी था। यानी बुराई अधिक अच्छाई कम पाप अधिक पुण्य
कम। इसी कुशीनगर में हरिवंश नामक एक सद्गृहस्थ अपनी पत्नी दामिनी के साथ
सुखी-सम्पन्न जीवन गुजार रहा था। दोनों ही बड़े नेक और संतोषी स्वभाव के थे।
धार्मिक कार्यों-अनुष्ठानों में उनकी अपार श्रद्धा थी। दुनियादारी से उनका कोई
विशेष लेना-देना नहीं था। अपने में ही मगन गृहस्थी की गाड़ी खींचे चले जा रहे थे
दोनों किसी ने ठीक ही कहा है-'संकट और अतिथि के आने के
लिए कोई समय निर्धारित नहीं होता।' कुछ ऐसा ही हुआ दामिनी के
साथ-जब उसका पति हरिवंश न जाने कैसे बुरे लोगों की संगत में फंस गया और घर-गृहस्थी
से उसका मन उचट गया।
देर रात शराब पीकर घर आना
और गाली-गलौज तथा मारपीट करना उसका नित्य का नियम-सा बन गया था। जुए, सट्टे, रेस तथा वेश्यागमन जैसे
बुरे कर्म भी कुसंगति की बदौलत उसके पल्ले पड़ गए। धन कमाने की तीव्र लालसा ने
हरिवंश की बुद्धि हर ली और उसको अच्छे-बुरे का भी ज्ञान न रहा। घर में जो कुछ भी
था, सब उसके दुर्व्यसनों की भेंट चढ़ गया। जो लोग पहले
उसका सम्मान करते थे, अब उसे देखते ही रास्ता
बदलने लगे। भुखमरी की हालत में भिखमंगों के समान उनकी स्थिति हो गई।
लेकिन दामिनी बेहद संयमी और
आस्थावान तथा संस्कारी स्त्री थी। ईश्वर पर उसे अटल विश्वास था। वह जानती थी कि यह
सब कर्मों का फल है। दुख के बाद सुख तो एक दिन आना ही है. इस आस्था को मन में लिए
वह ईशभक्ति में लीन रहती और प्रार्थना करती कि उसके दुख शीघ्र दूर हो जाएं। समय का
चक्र अपनी रफ्तार से चलता रहा। अचानक एक दिन दोपहर के समय द्वार पर हुई दस्तक की
आवाज सुनकर दामिनी की तंद्रा भंग हुई। अतिथि सत्कार के भयमात्र से उसकी अंतरात्मा
कांप उठी क्योंकि घर में अन्न का एक दाना भी नहीं था, जो अतिथि की सेवा में अर्पित किया जा सकता।
फिर भी संस्कारों की ऐसी प्रबलता थी कि उसका मन
अतिथि सत्कार को उद्धत हो उठा। उसने उठकर द्वार खोला। देखा, सामने एक दिव्य-पुरुष खड़ा था। बड़े-बड़े धुंघराले श्वेत केश...चेहरे
को ढंके हुए. लहराती दाढ़ी गेरुए वस्त्रों का आवरण पहने उसके चेहरे से तेज टपका
पड़ रहा था आंखें मानो अमृत-वर्षा सी कर रही थीं। उस दिव्य-पुरुष को देखकर दामिनी
को अपार शांति का अनुभव हुआ और वह उसे देखते ही समझ गई कि आगत वास्तव में कोई
पहुंचा हुआ सिद्ध महात्मा है। उसके मन में अतिथि के प्रति गहन श्रद्धा के भाव उमड़
पड़े और वह उसे सम्मान सहित घर के भीतर ले गई। दामिनी ने जब उसे फटे हुए आसन पर
बैठाया तो वह मारे लज्जा के जमीन में गड़-सी गई।
उधर वह संत पुरुष दामिनी की
ओर एकटक निहारे जा रहा था। घर में जो कुछ भी बचा-खुचा था दामिनी ने अतिथि की सेवा
में अर्पित कर दिया, पर उसने इस पर कोई ध्यान
नहीं दिया। वह तो बस दामिनी को यूं निहारे जा रहा था, मानो उसे कुछ याद दिलाने की चेष्टा कर रहा हो। जब काफी देर तक दामिनी
कुछ न बोली तो उसने कहा-'बेटी, मुझे पहचाना नहीं क्या?' उसका यह प्रश्न सुनकर
दामिनी जैसे सोते से जागी और अत्यंत सकुचाते हुए मृदुल स्वर में बोली-'महाराज, मेरी धृष्टता को क्षमा करें, जो आप जैसे दिव्य पुरुष को मैं पहचानकर भी नहीं पहचान पा रही हूं
पारिवारिक कष्टों ने तो जैसे मेरी सोचने-समझने की शक्ति ही छीन ली है।
लेकिन यह निश्चित है कि
संकट की इस घड़ी में मुझे आप जैसे साधु पुरुष का ही सहारा है तभी जैसे दामिनी को
कुछ याद हो आया वह उस साधु के चरणों में गिरकर बोल उठी-'अब मैं आपको पहचान गई हूं महाराज! स्नेहरूपी अमृत की वर्षा करने वाले अपने शुभचिंतक को कोई
कैसे भूल सकता है भला वास्तव में वह साधु मंदिर की राह के मध्य में बनी अपनी
कुटिया के बाहर वटवृक्ष के नीचे बैठ साधना किया करता था और मंदिर आने-जाने वाले
सभी श्रद्धालु उसे प्रणाम करके स्वयं को कृतार्थ अनुभव करते थे। दामिनी भी उन्हीं
में से एक थी। जब पिछले काफी दिनों से उसने उसे मंदिर की ओर आते-जाते नहीं देखा तो
उसकी कुशलक्षेम जानने के लिए पूछताछ करते हुए उसके घर की ओर आ निकला था।
दामिनी अभी अपनी सोचों में ही डूबी हुई थी कि साधु
महाराज ने मौन भंग किया-'क्या कारण है पुत्री! तू
आजकल मंदिर आती-जाती दिखाई नहीं पड़ती? तुझे जो भी कष्ट है, मुझे बता, शायद मैं तेरी कुछ सहायता
कर सकूं ! व्यक्ति दुखों के बोझ तले दबा हो तो ऐसे में सहानुभूति के दो बोल ही
काफी होते हैं। दामिनी भी खुद पर संयम नहीं रख पाई और बिलखकर रोने लगी। तभी वह
साधु वात्सल्यपूर्ण स्वर में बोला-'मन छोटा करने से समस्या हल
नहीं होगी...सुख-दुख तो एक गाड़ी के दो पहियों के समान हैं। इनका आना-जाना तो
जिंदगीभर लगा ही रहता है। अपना दुख किसी को बता देने से मन हल्का हो जाता है।' कुछ देर चुप रहने के बाद दामिनी ने बोलना शुरू किया- 'महाराज! सर्वसुखों से भरपूर था मेरा घर...कण-कण में खुशियों का नृत्य
होता था। पति भी नेक और ईमानदार थे सादा जीवन उच्च विचार की आधारशिला पर टिकी थी
हमारी गृहस्थी। रुपये-पैसे की भी कोई कमी नहीं थी। सुबह-शाम घर में ईश वंदना होती
थी।
लेकिन अचानक न जाने किसकी नजर लग गई-हमारा भाग्य
हमसे रूठ गया मेरे पति कुसंगति में फंसकर अपना सबकुछ गंवा बैठे। अब तो ऐसा लगता है
जैसे साया भी साथ छोड़कर जाने को तैयार बैठा है। भिखारियों से भी बदतर स्थिति हो
गई है हमारी दामिनी की करुण-व्यथा सुनकर साधु का हृदय हाहाकार कर उठा, वह द्रवित स्वर में बोल उठा-'बेटी! कर्म का लिखा तो
भोगना ही पड़ता है-तुम्हारे कष्टों का भी कर्मों से नाता है। लेकिन तुम चिंता न
करो सबकुछ पहले जैसा हो जाएगा। दुख के बाद ही सुख आता है दुख सहे बिना सुख की
सच्ची अनुभूति हो ही नहीं सकती। तुम मां लक्ष्मी के प्रति श्रद्धा जारी रखो सबका
उद्धार करने वाली, प्रेम का छलकता सागर हैं
मां लक्ष्मी। अपने भक्तों पर सदैव उनकी कृपादृष्टि रहती है। तुम संपूर्ण आस्था के
साथ मां वैभवलक्ष्मी का व्रत करना शुरू करो तुम्हारी साधना अवश्य रंग लाएगी।'
दामिनी एक संस्कारी स्त्री थी। धर्म-कर्म में उसकी
अगाध आस्था थी। मां वैभवलक्ष्मी के व्रत की बात सुनकर उसका चेहरा दमक उठा, बोली- 'महाराज, यदि इस व्रत को करने से मेरे परिवार पर आई विपदा टल सकती है तो मैं
इसे जरूर करूंगी। आप मुझे बताएं कि इस व्रत को कब और कैसे किया जाता है?' साधु महाराज दामिनी की भक्ति-भावना देखकर प्रसन्न होकर बोले-'बेटी! सारे जगत का कल्याण करने वाली मां वैभवलक्ष्मी के व्रत की विधि
मैं जनकल्याणार्थ तुम्हें बता रहा हूं-प्रत्येक शुक्रवार को यह व्रत किया जाता है।
सर्वप्रथम, जितने शुक्रवार को यह व्रत
करना हो, उसका संकल्प लेकर मां
वैभवलक्ष्मी को मन-ही-मन प्रणाम करें। स्नानादि से निवृत्त होकर स्वच्छ धवल वस्त्र
पहनकर पूरब दिशा की ओर मुंह करके आसन पर बैठे। सामने एक चौकी पर चावल की एक ढेरी
लगाकर उस पर पानी से भरा कलश स्थापित करें, जो तांबे का होना चाहिए।
कलश को कटोरी से ढंक दें और उस कटोरी में कोई भी स्वर्णाभूषण रखें...सोना न हो तो
चांदी का आभूषण रखें...वह भी पास न हो तो रुपये का सिक्का भी काम दे सकता है।
शुद्ध घी का दीपक तथा अगरबत्ती जलाएं और मन-ही-मन पूर्ण श्रद्धा के साथ मां
वैभवलक्ष्मी का जाप करते रहें। श्री यंत्र' मां लक्ष्मी का प्रिय यंत्र
है, उसे शत-शत नमन करें। कटोरी में रखे गहने या रुपये
पर हल्दी, कुंकुम तथा अक्षत अर्पित
करें। कोई भी मिष्ठान्न प्रसाद रूप में रखें। संभव न हो पाए तो गुड़ या शक्कर से
भी काम चल सकता है। फिर श्रद्धापूर्वक मां की आरती करके 14 बार प्रेम सहित बोलें-'जय मां वैभवलक्ष्मी।'
'मां वैभवलक्ष्मी मेरी मनोकामना पूरी करें' ऐसा संकल्प लेकर सच्चे मन से मां से विनती करें। प्रसाद बांटें और
स्वयं भी ग्रहण करें। दिन में एक बार सात्विक भोजन करें, यदि संभव हो तो उपवास रखें। पूजा में रखा गहना या रुपया लाल कपड़े
में लपेटकर सुरक्षित रख लें। यह आगे आने वाले शुक्रवारों को पूजा में काम आएगा।
कलश में भरा जल तुलसी के पौधे को समर्पित कर दें तथा अक्षत पक्षियों को आहारस्वरूप
डालें। ऐसी शास्त्रोक्त विधि से व्रत करने वालों को शीघ्र फल मिलता है।' साधु महाराज के मुखारविंद से यह वृत्तांत सुनकर दामिनी पुलकित हो
उठी। उनके चरण स्पर्श कर उत्साहित स्वर में बोली-'अब लगे हाथ उद्यापन की विधि भी बता दें महाराज! इसके बिना तो व्रत
अधूरा ही रह जाएगा?' 'अवश्य बेटी!' कहकर साधु महाराज उद्यापन की विधि बताने लगे-'चाहे जितने भी शुक्रवार (प्राय: 11 या 21) व्रत करने का संकल्प लिया हो,
लेकिन मन में मां वैभवलक्ष्मी के प्रति श्रद्धा
तथा आस्था बराबर बनी रहनी चाहिए। जिस दिन अंतिम शुक्रवार का व्रत हो, उस दिन शास्त्रोक्त विधि से उद्यापन किया जाता है। अन्य शुक्रवारों
की भांति ही इस दिन भी पूजन करें। हां, प्रसाद के रूप में खीर
अवश्य रखें। पूजा के बाद नारियल
फोड़कर सात कुंआरी कन्याओं के चरण धोकर, कुंकुम का तिलक लगाकर पूजन
करें, उन्हें सामर्थ्यानुसार दक्षिणा दें फिर प्रसाद के
रूप में खीर वितरित करें। अब मां वैभवलक्ष्मी के सभी स्वरूपों को मन-ही-मन नमन
करते हुए कहें-'हे मां! यदि मैंने शुद्ध
तथा निर्मल हृदय से आपकी स्तुति करते हुए वैभवलक्ष्मी व्रत विधि-विधानानुसार पूर्ण
किए हों तो मेरी मनोकामना (यहां पर अपनी मनोकामना का स्मरण करें) अवश्य पूरी करना।
संतानहीनों को संतान देने वाली,
दुखियों का दुख हरने वाली, अखंड सौभाग्य का वरदान देने वाली, कुंआरी कन्याओं को मनचाहा
वर दिलाने वाली मां वैभवलक्ष्मी आपकी महिमा अपरम्पार है। अपने हर भक्त की
विपत्तियां हरकर उन्हें सुख-समृद्धि प्रदान करना।'
साधु महाराज से वैभवलक्ष्मी व्रत का शास्त्रोक्त
ज्ञान प्राप्त करके दामिनी भावविभोर हो उठी। उसे अपने भीतर एक अनोखे तथा असीमित
आत्मबल का संचार होता महसूस हुआ। उसने भी मां वैभवलक्ष्मी के 21 व्रत आते शुक्रवार से शुरू करने का संकल्प लेकर साधु महाराज को आदर
सहित विदा किया और मन-ही-मन मां वैभवलक्ष्मी का स्तुतिगान करने लगी। दो दिन बाद ही
शुक्रवार आ गया। उससे पहली रात दुखों की मारी दामिनी ठीक से सो भी न सकी। मां वैभवलक्ष्मी
के व्रत करने से उसकी समस्याओं का अंत हो जाएगा, यह सोचकर वह मुंह अंधेरे ही उठ बैठी और स्नानादि कर स्वच्छ वस्त्र
धारण किए।
आसन पर पूर्व दिशा की ओर मुंह करके दामिनी ने अपने
सम्मुख रखी चौकी पर चावल की छोटी-सी ढेरी बनाकर उस पर तांबे का कलश रखा। लेकिन जब
स्वर्णाभूषण रखने की बात आई तो धर्मसंकट में पड़ गई। सारे गहने पति के दुर्व्यसनों
की भेंट चढ़ चुके थे विवाहिता स्त्री थी, सो मंगलसूत्र भी उतारकर
नहीं रख सकती थी, और कोई गहना था नहीं। तभी
उसे उन नन्ही पायलों का स्मरण हो आया, जो उसने अपनी आने वाली
संतान के लिए बनवाकर रख छोडी थीं और पति की निगाहों से उन्हें बचा रखा था। उसने
झटपट वह पायलें निकाली और गंगाजल से धोकर उन्हें शुद्ध करके कलश पर रखी कटोरी में
डाल दिया। डिब्बे की तली में से बची-खुची शक्कर निकालकर उसे प्रसाद के रूप में रखा
और विधि अनुसार व्रत किया। सर्वप्रथम उसने अपने पति को प्रसाद दिया।
आने वाला पूरा सप्ताह बड़ी ही हंसी-खुशी से बीता।
बात-बात पर झल्ला उठने वाला उसका पति अपेक्षाकृत शांत तथा संयत रहा-कोई मारपीट तथा
क्लेश घर में नहीं हुआ। इसे दामिनी ने मां वैभवलक्ष्मी का चमत्कार समझा और
मन-ही-मन उन्हें प्रणाम किया। मां वैभवलक्ष्मी के प्रति उसकी आस्था और भी बलवती हो
गई। इसी प्रकार शास्त्रोक्त विधि से दामिनी ने बीस शुक्रवार के व्रत पूरे कर लिए।
इस बीच कई परिवर्तन हुए थे उसका पति कुसंगति छोड़कर सीधी राह पर आ गया था और उसका
कामकाज भी जमने लगा था। घर में यदि किसी चीज की बहुतायत नहीं थी तो कमी भी नहीं रह
गई थी। यह सब मां वैभवलक्ष्मी के चमत्कार और दामिनी की आस्था तथा विश्वास का
परिणाम था।
इक्कीसवें शुक्रवार को व्रत का उद्यापन करना था।
साधु महाराज के वचन अब भी मानो दामिनी के कानों में गंज रहे थे। उनकी बताई विधि के
अनुसार ही दामिनी ने शास्त्रोक्त विधि से उद्यापन किया। सात कुंआरी कन्याओं को
भोजन कराकर दक्षिणा दी। आसपास की सौभाग्यवती स्त्रियों में प्रसाद वितरित की। मां
वैभवलक्ष्मी के हर स्वरूप को प्रणाम किया और कहा-'आपकी महिमा निराली है मां! आपने मेरे सारे दुख हर लिए मेरी सभी
मनोकामनाएं पूर्ण कर दी...मेरा उजड़ा घर फिर से बस गया। मेरा यह नया जीवन आप ही की
देन है मां मैं आजीवन आपकी पूजा-अर्चना करूंगी और दूसरों को भी आपकी महिमा से अवगत
कराकर वैभवलक्ष्मी के व्रत रखने के लिए प्रेरित करूंगी।
* श्री लक्ष्मीजी की आरती :-
जय लक्ष्मी माता जय-जय लक्ष्मी माता।
तुमको निशदिन सेवत हर विष्णु विधाता।
ब्रह्माणी, रुद्राणी, कमला तू ही जगमाता।
सूर्य, चन्द्रमा ध्यावत नारद ऋषि
गाता।
दुर्गा रूप निरंजनी सुख संपति दाता।
जो कोई तुमको ध्यावत ऋद्धि-सिद्धि पाता।
तू ही पाताल बसंती तू ही शुभ दाता।
कर्म प्रभाव प्रकाशक जग निधि के त्राता।
जिस घर थारो वासा तिस घर में गुण आता।
कर सके सोई कर ले मन नहीं घबराता।
तुम बिन यज्ञ न होवे वस्त्र न कोई पाता।
खान-पान का वैभव तुम बिन नहीं आता।
शुभ गुण सुंदर मुक्ता क्षीर निधि जाता।
रत्ल चतुर्दश तोकू कोई नहीं पाता।
श्री लक्ष्मीजी की आरती जो कोई नर गाता।
उर उमंग अति उपजे पाप उतर जाना।
स्थिर चर जगत रचाये शुभ कर्म नर लाता।
राम प्रताप मैया की शुभ दृष्टि चाहता।