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रविवार, 15 सितंबर 2019

नवरात्री व्रत कथा और पूजा की विधि एवं विधान




नवरात्री व्रत कथा और पूजा की विधि एवं विधान

* पूजा की विधि एवं विधान :-

श्री दुर्गा पूजा विशेष रूप से वर्ष में दो बार चैत्र व आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से आरम्भ होकर नवमी तक होती है। देवी दुर्गा के नव(9) स्वरूपों की पूजा होने के कारण 'नवदुर्गा' तथा दिन में पूजा होने से नवरात्र कहा जाता है । चैत्र मास के नवरात्र "वार्षिक नवरात्र" तथा आश्विन मास के नवरात्र "शारदीय नवरात्र" कहलाते है।

भगवती दुर्गा का साधक भक्त स्नानादि से शुद्ध होकर, शुध्द वस्त्र पहनकर पूजा स्थल को सजाये । मण्डप में श्री दुर्गा की मूर्ति स्थापित करें । मूर्ति के दायीं और कलश की स्थापन कर ठोक कलश के
सामने मिट्टी और रेत मिलाकर जीं
 बो दें । मण्डप के पूर्व कोने में दीपक की स्थापना करे । पूजन मे सर्वप्रथम गणेश जी का पूजन करके अन्य देवी-देवताओ का पूजन करें। उसके बाद जगदम्बा का पूजन करें।

* पूजन सामग्री :-  जल,चन्दन, रोली, कलावा, अक्षत, पुष्प, पुष्पमाला, धूप, दीप, नेवेद्य, फल, पान, सुपारी, लौंग, इलाचयी, आसन, चौकी, पूजन पात्र, आरती कलशादि ।

* कुमारी-पूजन :- आठ या नौ दिन तक इस प्रकार पूजा करने के बाद महाष्टमी या रामनवमी को पूजा करने के बाद कुमारी कन्याओं को खिलाना चाहिए । इस कुमारियों की संख्या हो तो अति उत्तम, नही तो कम से कम दो होनी चाहिए । कुमारियों की आयु से 10  वर्ष तक होनी चाहिए।

क्रमश: इन सब कुमारियों के नमस्कार मंत्र ये है

(1) कुमाय्यै नमः 

(2) त्रिमूत्यै नमः 

(3) कल्याण्यै नमः 

(4) रोहिण्यै नमः 

(5) कालिकायें नमः 

(6) चाण्डिकायै नमः 

(7) शाम्भव्यै नमः 

(8) दुर्गायै नमः 

(9) सुभाद्रायै नमः ।

पूजन करने के बाद जब कुमारी देवी भोजन कर ले तो उनसे अपने सिर पर अक्षत छुड़वायें और उन्हें दक्षिणा दें। इस तरह करने से महामाया भगवती अत्यन्त प्रसन्न होकर मनोरथ पूर्ण करती हैं।

* नवरात्री व्रत कथा :- 

प्राचीन काल में चैत्र वंशी सुरथ नामक एक राजा राज करते थे। एक बार उनके शत्रुओं ने आक्रमण कर दिया और उन्हे युद्ध में हरा दिया । राजा को बलहीन देखकर उसके दुष्ट मंत्रियों ने राजा की सेना
और खजाना अपने अधिकार में कर लिया। जिसके परिणाम स्वरूप राजा सुरथ दुखी और निराश होकर वन की ओर चले गए और वहाँ महर्षि मेधा के आश्रम में रहने लगे। एक दिन आश्रम के निकट राजा की भेंट समाधि नामक एक वैश्य से हुई
, जो अपनी स्त्री और पुत्रों के दुर्व्यवहार से अपमानित होकर वहाँ निवास कर रहा था। 

समाधि ने राजा को बताया कि वह अपने दुष्ट स्त्री-पुत्रादिकों से अपमानित होने के बाद भी उनका मोह नहीं छोड़ पा रहा है। उसके चित्त को शान्ति नहीं मिल पा रही है। इधर राजा का मन भी उसके अधीन नहीं था। राज्य, धनादिक की चिंता अभी भी उसे बनी हई थी, जिससे वह बहत दुखी थे। तदान्तर दोनों महर्षि मेधा के पास गए।

महर्षि मेधा यथायोग्य सम्भाषण करके दोनों ने वार्ता आरम्भ की। उन्होने बताया - यद्यपि हम दोनों अपने स्वजनों से अत्यन्त अपमानित और तिरस्कृत होकर यहाँ आए हैं, फिर भी उनके प्रति हमारा मोह नहीं छुटता । 

इसका क्या कारण है?' महर्षि मेधा ने कहा - "मन शखित के अधीन होता है। आदिशक्ति भगवती के दो रूप है - विद्या और अविद्या । विद्या ज्ञान का स्वरूप है तथा अविद्या अज्ञान का स्वरूप है। अविद्या मोह की जननी है किंतु जो लोग मां भगवती को संसार का आदि कारण मानकर भक्ति करते है, मां भगवती उन्हे जीवन मुक्त कर देती है

राजा सुरथ ने पूछा - "भगवन् ! वह देवी कौन सी हैजिसको आप महामाया कहते है ? हे ब्रह्मन! वह कैसे उपन्न हुई। और उसका क्या कार्य है? उसके चरित्र कौन-कौन से है? प्रभो! उसका प्रभाव, स्वरूप आदि सबके बारे में विस्तार में बताइये ।" महर्षि मेधा बोले - राजन्! वह देवी तो नित्यास्वरूप है

उनके द्वारा यह संसार रचा गया हैं। तब भी उसकी उत्पति अनेक प्रकार से होती है, जिसे मैं बताता हूँ। संसार को जलमय करके जब भगवान् विष्णु योगनिद्रा का आश्रय लेकर, शेरशय्या पर सो रहे थे, तब मधु-कैटभ नाम के असुर उनके कानों के मेल से प्रकट हुए और वह श्री ब्रह्माजी को मारने के लिए तैयार हो गए। उनके इस भयानक रूप को देखकर ब्रह्माजी ने अनुमान लगा लिया कि भगवान विष्णु के सिवाय मेरा कोई रक्षक नहीं है। किंतु विडम्बना यह थी

कि भगवान सो रहे थे। तब उन्होंने श्री भगवान को जगाने के लिए उनके नेत्रों में निवास करने वाली योगनिद्रा की स्तुति की। परिणामत: तमोगुण अधिष्ठात्री देवी योगनिद्रा भगवान विष्णु के नेत्र, नासिका, मुख, बाहु और हृदय से निकलकर बह्माजी के सामने खड़ी हो गई। योगनिद्रा के निकलते ही श्रीहरि तुरन्त जाग उठे ।

उन्हे देखकर राक्षस क्रोधित हो उठे और युद्ध के लिए उनकी तरफ दौड़े । भगवान विष्णु और उन राक्षसों में पांच हजार वर्षों तक युध्द हुआ। अंत में दोनों राक्षसों ने भगवान की वीरता से प्रसन्न होकर उन्हे वर मांगने को कहा। भगवान ने कहा- यदि तुम मुझ पर प्रसन्न हो तो
अब मेरे हाथों मर जाओ। बस
, इतना ही वर में तुम से मांगता हूँ।" 

महर्षि मेधा बोले- इस तरह से जब वह धोखे में आ गए और अपने चारों ओर जल ही जल देखा तो भगवान से कहने लगे - जहाँ पर जल न हो, उसी जगह हमारा वध कीजिए ।"तथास्तु" कहकर भगवान श्रीहरि ने उन दोनों को अपनी जांघ पर लिटा कर सिर काट डाले। महर्षि मेधा बोले- 'इस तरह से यह देवी श्री ब्रह्माजी के स्तुति करने पर प्रकट हुई थी, अब तुम से उनके प्रभाव का वर्णन करता हूँ, सो सुनो। 

प्रचीन काल में देवताओं के स्वामी इंद्र और असुरों के स्वामी महिषासुर के बीच पूरे सौ वर्ष तक घोर युद्ध हुआ था। इस युद्ध में देवताओं की सेना परास्त हो गई और इस प्रकार देवताओं को जीत महिषासुर इन्द्र बन बैठा था। तब हारे हुए देवता श्री ब्रह्माजी को साथ लेकर भगवान शंकर व विष्णु जी के पास गए और अपनी हार का सारा वृत्तान्त उन्हे कह सुनाया। 

उन्होंने महिषासुर के वध के उपाय की प्रार्थना की। साथ ही अपना राज्य वापस पाने के लिए उनकी कृपा की स्तुति की। देवताओं की बातें सुनकर भगवान विष्णु और शंकर जी को दैत्यों पर बड़ा गुस्सा आया। गुस्से मे भरे हुए भगवान विष्णु के मुख से बड़ा भारी तेज निकला और उसी प्रकार का तेज भगवान शंकर, ब्रह्माजी और इन्द्र आदि दूसरे देवताओं के मुख से प्रकट हुआ, जिससे दसों दिशाएं जलने लगी। अंत में यही तेज एक देवी के रूप में परिवर्तित हो गया।

देवी ने सभी देवताओं से आयुध, शक्ति तथा आभुषण प्राप्त कर उच्च-स्वर से गगनभेदी गर्जना की। जिससे समस्त विश्व में हलचल मच गई पृथ्वी, पर्वत आदि डोल गए। क्रोधित महिषासुर दैत्य सेना लेकर इस सिंहनाद की ओर दौड़ा। उसने देखा की देवी की प्रभा से तीनों लोक प्रकाशित हो रहे है। महिषासुर ने अपना समस्त बल और छल लगा दिया परन्तु देवी के सामने उसकी एक न चली। अंत में वह देवी के हाथों मारा गया। आगे चलकर यही देवी शुम्भ-निशुम्भ नामक असुरों का वध करने
के लिए गौरी देवी के शरीर से उत्पन्न हुई। 

उस समय देवी हिमालय पर विचर रही थी। जब शुम्भ-निशुम्भ के सेवकों ने उस परम मनोहर रूप वाली अम्बिका देवी को देखा और तुरन्त अपने स्वामी के पास जाकर कहा - "महाराज! दनिया के सारे रत्न आपके अधिकार में है। वे सब आपके यहाँ शोभा पाते है । ऐसे ही एक स्त्री रत्न को हमनें हिमालय की पहड़ियों में देखा है। आप हिमालय को प्रकाशित करने वाली दिव्य-कांति युक्त इस देवी का वरण कीजिए।

यह सुनकर दैत्यराज शुम्भ ने सुग्रीव को अपना दूत बनाकर देवी के पास अपना विवाह प्रस्ताव भेजा। देवी ने प्रस्ताव को ना मानकर कहा- "जो मुझसे युद्ध में जीतेगा । मैं उससे विवाह करूँगी ।" यह सुनकर असुरेन्द्र के क्रोध का पारावार न रहा और उसने अपने सेनापति धूम्रलोचन को देवी को केशो से पकड़कर लाने का आदेश दिया। इस पर धूम्रलोचन साठ हजार राक्षसों की सेना साथ लेकर देवी से युद्ध के लिए वहाँ पहुँचा और देवी को ललकारने लगा । देवी ने सिर्फ अपनी हुंकार से ही उसे भस्म कर दिया और देवी के वाहन सिंह ने बाकी असुर सेना का संहार कर डाला ।

इसके बाद चण्ड-मुण्ड नामक दैत्यों को एक बड़ी सेना के साथ युद्ध के लिए भेजा गया। जब असुर देवी को पकड़ने के लिए तलवार लेकर उनकी ओर बढे तब देवी ने काली का विकराल रूप धारण करके उन पर टूट पड़ी । कुछ ही देर में सम्पूर्ण दैत्य सेना को नष्ट कर दिया। फिर देवी ने "हूँ" शब्द कहकर चण्ड का सिर काटकर अलग कर दिया और फिर मुण्ड को यमलोक पहुंचा दिया। तब से देवी काली की संसार में चामुण्डा के नाम से ख्याति होने लगी। महर्षि मेधा ने आगे बताया- चण्ड मुण्ड और सारी सेना के मारे जाने की खबर सुनकर असुरों के राजा शुम्भ ने अपनी सम्पूर्ण सेना को युध्द के लिए तैयार होने की आज्ञा दी । 

शुम्भ की सेना को अपनी ओर आता देखकर देवी ने अपने धनुष की टंकोर से पृथ्वी और आकाश के बीच का भाग गुँजा दिया। ऐसे भयंकर शब्द को सुनकर राक्षसी सेना ने देवी और सिंह को चारों ओर से घेर लिया। उस समय दैत्यों के नाश के लिये और देवताओं के हित के लिए समस्त देवताओं की शक्तियां उनके शरीर से निकलकर उन्ही के रूप में आयुधों से सजकर दैत्यों से युद्ध करने के लिए प्रस्तुत हो गई। इन देव शक्तियों से घिरे हुए

भगवान शंकर ने देवी से कहा- मेरी प्रसन्नता के लिए तुम शीघ्र ही इन असुरों को मारो । इसके पश्चात् देवी के शरीर से अत्यन्त उग्र रूप वाली और सैकड़ों गीदड़ियों के समान आवाज करने वाली चण्डिका- शक्ति प्रकट हुई । उस अपराजिता देवी ने भगवान शंकर को अपना दूत बनाकर शुम्भ-निशुम्भ के पास इस संदेश के साथ भेजा - जो तुम्हें अपने जीवित रहने की इच्छा हो तो त्रिलोकी का राज्य इन्द्र को दे दो, देवताओं को उनका यज्ञ भाग मिलना आरम्भ हो जाये और तुम पाताल को लौट जाओ, किन्तु यदि बल के गर्व से तुम्हारी लड़ने की इच्छा हो तो फिर आ जाओ

तुम्हारे मांस से मेरी योनियाँ तृप्त होंगी, चूकि उस देवी ने भगवान शंकर को दूत का कार्य में नियुक्त किया था, इसलिए वह संसार में शिवदूती के नाम से विख्यात हुई ।मगर दैत्य भला कहां मानने वाले थे। वे तो अपनी शक्ति के मद में चूर थे। उन्होंने देवी की बात अनसुनी कर दी और युद्ध को तत्पर हो उठे। देखते ही देखते पुनः युद्ध छिड़ गया। किंतु देवी के समक्ष असुर कब तक ठहर सकते थे। कुछ ही वक्त में देवी ने उनके अस्त्र-शस्त्रों को काट डाला ।

जब बहुत से दैत्य काल के मुख में समा गए तो महादैत्य रक्तबीज युध्द के लिये आगे बढ़ा । उसके शरीर से रक्त की बंदें पृथ्वी पर जैसे ही गिरती थीं तुरन्त वैसे ही शरीर वाला तथा बलवान दैत्य पृथ्वी पर उत्पन्न हो जाता था। यह देखकर देवताओं को भय हुआदेवताओं को भयभीत देखकर चंडिका ने काली से कहा-चामण्डे ! तुम अपने मुख को फैलाओ और और मेरे शस्त्राघात से उत्पन्न हुए रक्त बिन्दुओं तथा रक्त बिन्दुओं से उत्पन्न हुए महा असुरों को तुम अपने इस मुख से भक्षण करती हुई तुम रणभूमि में विचरो । इस प्रकार उस दैत्य का रक्त क्षीण हो जाएगा और वह स्वयं नष्ट हो जाएगा । इस प्रकार अन्य दैत्य उत्पन्न नहीं होगें। 

काली से इस प्रकार कहकर चण्डिका देवी रक्तबीज पर अपने त्रिशुल से प्रहार किया और काली देवी ने अपने मुख में उसका रक्त ले लिया। काली के मुख में उस रक्त से जो असुर उत्पन्न हुएउनको उसने भक्षण कर लिया । चण्डिका ने उस दैत्य को बज्र, बाण, खड्ग इत्यादि से मार डाला । महादैत्य रक्तबीज के मरते ही देवता अत्यन्त प्रसन्न हुए और माताएं उन असुरों का रक्त पीने के पश्चात् उद्धत होकर नृत्य करने लगी।

रक्तबीज के मारे जाने पर शुम्भ व निशुम्भ को बड़ा क्रोध आया और अपनी बहुत बड़ी सेना लेकर महाशक्ति से युद्ध करने चल दिए । महापक्रामी शुम्भ भी अपनी सेना सहित मातृगणों से युद्ध करने के लिए आ पहुंचा। किंतु शीर्घ ही सभी दैत्य मारे गए और देवी ने शुम्भ-निशुम्भ का संहार कर दिया। सारे संसार में शांति हो गई और देवतागण हर्षित होकर देवी की वंदना करने लगे। 

इन सब उपाख्यानों को सुनकर मेधा ऋर्षि ने राजा सुरथ तथा वणिक समाधि से देवी स्तवन की विधिवत व्याख्या की, जिसके प्रभाव से दोनों नदी तट पर जाकर तपस्या में लीन हो गए । तीन वर्ष बाद दुर्गा माता ने प्रकट होकर दोनों को आशीर्वाद दिया। इस प्रकार वणिक तो संसारिक मोह से मुक्त होकर आत्मचिंतन में लग गया तथा राजा ने शत्रुओं को पराजित कर अपना खोया हुआ राज वैभव पुन: प्राप्त कर लिया ।